शांतिपूर्ण लेकिन शक्तिशाली संदेश – ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा !

18 मई 1974 की सुबह आकाशवाणी के दिल्ली स्टेशन पर बॉबी फिल्म का वह मशहूर गाना बज रहा था “हम तुम में कमरे में बंद हो और चाबी खो जाए” लेकिन ठीक 9:00 बजे वह गाना बीच में ही रोक दिया जाता है और एक घोषणा की जाती है, कृपया एक महत्वपूर्ण प्रसारण की प्रतीक्षा करें। कुछ सेकंड की खामोशी के बाद रेडियो में खबर सुनाई जाती है जिससे ना सिर्फ पूरे देश में खुशी की लहर फैल गई बल्कि अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देशों को हैरत में डाल दिया, यह खबर थी पोखरण में हुए देश के पहले न्यूक्लियर टेस्ट की जिसके साथ भारत का नाम दुनिया के परमाणु महाशक्ति वाले देशों की सूची में शुमार हो गया और यह सिर्फ देश को आजादी मिलने के महज 27 सालों बाद ही हुआ था। उस वक्त भारत के पास एडवांस टेक्नोलॉजी के न्यूक्लियर हथियार बनाने के लिए ना तो फंड्स थे और ना ही अमेरिका जैसे परमाणु संपन्न देशों का समर्थन।

भारत के ऐतिहासिक ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा की पूरी कहानी

कहानी की शुरुआत होती है द्वितीय विश्व युद्ध से जब अमेरिका ने जापान पर पहली बार परमाणु हमला किया मौत के इस तांडव में हिरोशिमा और नागासाकी दोनों शहर पल भर में राख हो गए। करीब २ लाख लोग मारे गए थे, इस हमले के सिर्फ एक हफ्ते बाद ही जापान ने अपने हथियार फेंक दिए और मित्र देश द्वितीय विश्व युद्ध जीत गए। यही वो समय था जब दुनिया ने न्यूक्लियर पावर की अहमियत को समझा था हालांकि दूसरी तरफ हमारा भारत आजादी की लड़ाई लड़ रहा था।
हमारे इतिहास के महान वैज्ञानिक डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा ने न्यूक्लियर रिसर्च पर काम करना शुरू कर दिया था। जनवरी 1954 में उन्हें भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर यानी बार्क स्थापित करने की अनुमति मिल गई लेकिन अब भी सरकार उन्हें परमाणु बम बनाने की अनुमति नहीं दे रही थी। मगर धीरे-धीरे हालात बिगड़ने लगे,एक तरफ पाकिस्तान के साथ सीमा पर तनाव बढ़ते जा रही थी वहीं दूसरी तरफ साल 1962 में चीन भारत पर हमला कर देता है जिसमें भारत की हार हो जाती है।
2 साल बाद ही चीन अपना न्यूक्लियर टेस्ट भी सफलतापूर्वक पूरा कर लेता है। भारत इस हार से पूरी तरह उबर भी नहीं पाया था कि 1965 और 1971 में पाकिस्तान भारत पर हमला कर देता है,इधर पश्चिमी पाकिस्तान जो कि अब बंगलादेश के नाम से अलग राष्ट्र हैं वहां भी पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह भड़क उठा था। ऐसे में सीमा पर आंतरिक खतरा को देखते हुआ भारत को बांग्लादेश की आज़ादी दिलवाने की जिम्मेदारी आ जाती है।

एक तरफ अमेरिका बंगाल की खाड़ी में जबकी दूसरी तरफ ब्रिटेन अरब सागर में भारत को घेरने के लिए अपना जंगी जहाज भेज देता है ताकि भारत पाकिस्तान के सामने घुटने टेक दे। एक तरफ था पाकिस्तान दूसरी तरफ चीन और साथ में समुद्र में भारतीय सेना के तेज गति के विकास से जलने वाले ब्रिटेन और अमेरिका कुल मिलाकर भारत की सुरक्षा काफी कमजोर हो जाती है और अगर इन हालत में दुश्मनों की तरफ से हमला होता तो तीन तरफा युद्ध में जीतना भारत के लिए मुश्किल हो जाता।


यही वह समय था जब प्राइम मिनिस्टर इंदिरा गांधी ने भारतीय वैज्ञानिकों को न्यूक्लियर टेस्ट करने के लिए हरी झंडी दे देती हैं। हालांकि अब डॉक्टर भाभा इस मिशन की कमान संभालने के लिए मौजूद नहीं थे क्योंकि 1966 में एक प्लेन क्रैश में उनकी मौत हो गई। लेकिन उनकी विरासत को आगे बढ़ाते हुए मिशन की कमान संभाली बार्क के डायरेक्टर राजा रमन्ना ने जिन्होंने इंदिरा गांधी के कहने पर 1966 से ही सीक्रेट न्यूक्लियर प्रोग्राम की तैयारी शुरू कर दी।
वहीं उनका साथ दे रहे थे डीआरडीओ के डायरेक्टर बीडी नाग चौधरी जिनके नेतृत्व में 75 वैज्ञानिकों की टीम काम में जुटी थी। पीके आयंगर और राजगोपाल चिदंबरम जैसे वैज्ञानिक भी इस काम में जुटे हुए थे।उन लोगों के अलावा सिर्फ तीन लोगों को इस ऑपरेशन के बारे में पता था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, उनके मुख्य सचिव दुर्गा प्रसाद धर और उनके पूर्व सचिव पी. एन. हक्सर के अलावा सरकार के किसी नेता को इस बारे में कोई खबर नहीं थी, यहां तक कि रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय को भी नहीं।क्योंकि बात ज्यादा फैलती तो हलचल होती और अगर अमेरिका को इस ऑपरेशन की खबर लग जाती तो वह इसे कभी ना होने देता।

भारत ने कैसे अपना पहला न्यूक्लियर टेस्ट किया और दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया !

सन् 1972 में जब इस प्रोग्राम की शुरुआत हुई तब सबसे पहले सवाल उठा कि टेस्टिंग के लिए प्लूटोनियम कहां से आएगा। दरअसल ट्रांबे का फिनिक्स प्लूटोनियम प्लांट 1970 में लीकेज के चलते बंद करना पड़ा था जिसके चलते प्लूटोनियम इकट्ठा करने में दिक्कत आ रही थी और जितना प्लूटोनियम बचा था वो पूर्णिमा न्यूक्लियर रिएक्टर में काम आ रहा था। इसी चलते जनवरी 1973 में राजा रमन्ना ने पूर्णिमा को शटडाउन करने का आदेश दिए ताकि वहां से प्लूटोनियम लेकर परमाणु परीक्षण में लगाया जा सके। परीक्षण के लिए बन रहे डिवाइस में करीब 6 किलो प्लूटोनियम का उपयोग होना था और पूर्णिमा में कुल 18 किलो ग्राम प्लूटोनियम रखा हुआ था इसका मतलब ये कि भारत तीन परमाणु बम बना सकता था। प्लूटोनियम का बंदोबस्त होने के बाद वैज्ञानिकों के सामने दूसरी सबसे बड़ी चुनौती थी न्यूट्रॉन रिफ्लेक्टर बनाना था ,यह परमाणु बम का वो हिस्सा था जिसे बनाने में अमेरिका के भी पसीने छूट गए थे।इसे हम परमाणु बम के दिल की धड़कन भी कहें तो भी गलत नहीं होगा क्योंकि इसका काम प्लूटोनियम के केंद्र में न्यूट्रॉन्स की बारिश कर एक चेन रिएक्शन शुरू करना था जिसके बिना यह बम ब्लास्ट नहीं हो सकता।
न्यूट्रॉन रिफ्लेक्टर को करीब 18 महीनों में बनाकर तैयार किया और यही वह हिस्सा था जो परीक्षण से सिर्फ दो हफ्ते पहले यानी 4 मई 1974 के दिन तैयार हुआ था। सब कुछ तैयार हो जाने के बाद कुछ एक्सपेरिमेंट्स हुए और प्राइम मिनिस्टर इंदिरा गांधी ने न्यूक्लियर टेस्टिंग को हरी झंडी दिखा दी।

यहीं से शुरू हुआ ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा !

इतने खतरनाक टेस्ट के लिए राजस्थान के पोखरण को ही क्यों चुना गया ?

न्यूक्लियर टेस्ट करने वाले हमारे देश के वैज्ञानिक खुद यह नहीं जानते थे कि इस टेस्ट के बाद कितना नुकसान हो सकता है इसलिए उन्हें एक ऐसी जगह की तलाश थी जहां की आबादी कम हो। उनकी तलाश पोखरण में जाकर खत्म हुई। जोधपुर और जैसलमेर के बीच बसा पोखरण भारतीय सेना की फील्ड फायरिंग रेंज थी और यहां पर भारतीय सेना पहले से ही अभ्यास किया करती थी। ऐसे में यहां सैनिक, वैज्ञानिक और लॉजिस्टिक की मूवमेंट देखकर अमेरिका और बाकी देशों को शक होने की संभावना कम थी। आबादी कम होने और सैन्य अड्डा होने के अलावा पोखरण को चुनने की एक और वजह थी उस इलाके की मिट्टी। दरअसल जब परमाणु बम विस्फोट होता तो बेहद खतरनाक रेडियोऐक्टिव रेडिएशन निकलती है जो ना सिर्फ हवा बल्कि पानी के सहारे भी फैल सकती थी इसलिए वैज्ञानिक परमाणु परीक्षण के लिए ऐसी जमीन की तलाश कर रहे थे जहां कि जमीन में पानी ना हो। जियोलॉजिस्ट के अनुसार पोखरण और आसपास के गांव की जमीन की ऊपरी सतह रेत की है, लेकिन नीचे की सतह पर कठोर चट्टानी चट्टानों से बनी है जो एक तरह की वल्केन शेल है जो ज्वालामुखी के विस्फोट के कारण बनती है। यानी जब ज्वालामुखी से निकलने वाला लावा धरती की सतह पर फैलता है तो यह तेजी से ठंडा होता है और चट्टान का रूप ले लेता है। यह चट्टान भी बारीक कणों वाली होती है और इसमें छेद नहीं होते इसलिए इन चट्टानों में पानी या किसी तरह का लिक्विड आर–पार नहीं हो सकता और यह पूरी तरह से सूखी होती है इसलिए वैज्ञानिक ने पोखरण को चुना।

परीक्षण के लिए न्यूक्लियर डिवाइस को एक एल आकार के अंडरग्राउंड शाफ्ट में उतारना था जिसका काम आर्मी की ही एक यूनिट को सौंपा गया लेकिन उन्हें इस बारे में कुछ खास जानकारी नहीं थी इसलिए शुरुआत में काफी दिक्कतें आई।
विडंबना ये थी कि जनवरी 1974 में खुदाई के दौरान एक सूखी जमीन में भी अचानक पानी निकलने लगा इस पानी को निकालने और रोकने की कोशिश हुई लेकिन पानी रुका नहीं इसके बाद एक दूसरी जगह पर शाफ्ट खोदा गया।
फरवरी 1974 में खुदाई का काम शुरू हुआ और टेस्ट के कुछ दिन पहले तक चलता रहा। शाफ्ट खोदे जाने के बाद न्यूक्लियर बम को मुंबई के भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर से पोखरण तक ले जाने में 900 किमी की यात्रा 3 दिन में सेना की देखरेख में पूरी की गई। आखिर में शाफ्ट से 40 मीटर की दूरी पर एक शेड में इस डिवाइस को असेंबल किया गया । शाफ्ट में न्यूक्लियर बम रखकर उसे रेत और सीमेंट से सील कर दिया गया। ब्लास्ट होने वाली जगह से करीब 5 किमी की दूरी पर एक ऑब्जर्वेशन सेंटर बनाया गया। 18 मई की सुबह 8 बजे डॉ. होमी बाबा जहांगीर का सपना आखिरकार सच होने वाला था, लेकिन आखिरी मौके पर टीम के एक साथी वीएस सेठी टेस्ट साइट पर फंस गए दरअसल उनकी जीप खराब हो गई जिसके चलते टेस्ट में 5 मिनट की देरी हो गई और फाइनली सुबह 8:05 पर ऑब्जर्वेशन सेंटर से डेटोनेटर को दबाया गया और एक बड़ा धमाका हुआ।उस धमाके से जमीन में गड्ढा बन गया और आसमान में धुएं और रेत का गुबार छा गया,इसके साथ भारत दुनिया का पहला देश बन गया जिसने यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल के पांच सदस्यों यानी अमेरिका ,फ्रांस, चीन,रूस और ब्रिटेन के बाद अपना न्यूक्लियर टेस्ट किया था। राजा रमन्ना की आंखों में खुशी के आंसू आ गए और ऑब्जर्वेशन सेंटर में मौजूद सभी वैज्ञानिक भी सुकून भरा खुशी का अनुभव कर रहे थे।
वहीं आसपास के गांव के लोगों की माने तो इस धमाके के बाद उन्हें लगा मानो जैसे भूकंप आया हो हालांकि जब उन्हें कई किलोमीटर दूरी से इस धुएं के गुबार देखने को मिला तो उन्हें महसूस हुआ कि कोई अनहोनी हुई है। लेकिन फिर “9:00 बजे रेडियो पर खबर आई भारत न्यूक्लियर महाशक्ति बन चुका है।”
भारत के सफल टेस्टिंग के बाद अमेरिका और फ्रांस जैसे पश्चिमी देशों ने भारत पर कई विदेशी प्रतिबंध लगाए लेकिन वह हमारी सफलता को नहीं दबा पाए।

क्या आप जानते हैं कि 1998 में भारत ने अमेरिकन सैटेलाइट की आंखों में धूल झोक कर पोखरण में दूसरी बार न्यूक्लियर टेस्ट की थी तब तो पूरी दुनिया के पैरों तले जमीन खिसक गई थी,जिसकी कहानी भी हम भारतवासियों को गर्व की अनुभूति देती है !

भारत के पोखरण न्यूक्लियर टेस्ट की सफलता से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा
मई 1978 का जब भारत के परमाणु परीक्षण के सूत्रधार रहे राजा रमन्ना इराक के दौरे पर गए थे वहां उन्हें पूरे एक हफ्ते तक खूब मान सम्मान मिला। इराकी सरकार ने उन्हें अपनी न्यूक्लियर फैसिलिटी भी दिखाई और दौरे के आखिरी दिन राजा रमन्ना की इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन से मुलाकात हुई। बातचीत के दौरान सद्दाम ने उन्हें ऐसी ऑफर दी जिससे उनकी रातों की नींद उड़ गई। सद्दाम ने उनसे कहा तुम अपने देश के लिए जो कर सकते थे कर चुके अब वापस मत जाओ यहां रहो और हमारा न्यूक्लियर प्रोग्राम संभालो और तुम जितना चाहो तुम्हें उतना पैसा दूंगा। दरअसल उस वक्त दुनिया भर में सद्दाम के दर्जनों दुश्मन थे और अगर राजा रमन्ना हां कहकर उनके लिए न्यूक्लियर बम बना देते तो शायद 1991 की गल्फ वॉर में रिजल्ट कुछ और होता। उस वक्त इराक के सामने खड़े थे 42 देश, ऐसे में पूरी दुनिया का भविष्य राजा रमन्ना के हाथ में था। रमन्ना सद्दाम हुसैन से सोचने के लिए वक्त मांगकर वापस अपने होटल आते हैं और वह रात भर जागे रहते हैं और सुबह पहली फ्लाइट पकड़कर भारत लौटते हैं क्योंकि अगर वह सद्दाम हुसैन को मुंह पर ना बोलने का हश्र उन्हें पता था।

भारत को परमाणु महाशक्ति बनाने वाले वैज्ञानिक और भारत सरकार के दृढनिश्चय फैसले के लिए सलाम

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