अहिंसा से मोक्ष तक – जैन धर्म का इतिहास और आस्था

जैन धर्म एक प्राचीन भारतीय धर्म है जिसकी प्रमुख शिक्षाएं सत्य (truth), अहिंसा (non-violence), और अपरिग्रह (non-possessiveness) पर आधारित हैं। ये धर्म केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व के प्रमुख धर्मों में से एक गिना जाता है।आप सब जैन धर्म के बारे में अवश्य ही जानते होंगे, लेकिन बहुत सारे लोग ऐसे होंगे जो जैन धर्म को हिंदू धर्म का एक रूप या पंथ समझते होंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है।

आखिर जैन धर्म है क्या और ये कब शुरू हुआ तथा इसे किसने शुरू किया ?

वैसे तो इसका उदय भारत में हुआ है लेकिन इसके जितने अनुयाई भारत में रहते हैं उससे कहीं ज्यादा भारत के पड़ोसी देशों और दुनिया के अन्य हिस्सों में भी रहते हैं। ऐसा माना जाता है इसकी शुरुआत महावीर स्वामी के द्वारा हुई लेकिन यह सच नहीं है क्योंकि जैन धर्म की शुरुआत प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव द्वारा हुई थी,जबकि महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें और आखिरी तीर्थंकर थे।

क्या होते हैं जैन धर्म में तीर्थंकर ?

तीर्थंकर वो होते हैं जिन्होंने अपने जीवन में सभी ज्ञान या फिर यूं कहें कि मोक्ष को प्राप्त किया होता है। क्योंकि
महावीर काल में इस धर्म का प्रचार और प्रसार सबसे ज्यादा हुआ यही वजह है कि आज अधिकांश लोग भगवान महावीर को ही जैन धर्म का संस्थापक मानते हैं। भगवान महावीर जैसे-जैसे मानव को मानवता का पाठ पढ़ाते गए वैसे-वैसे जैन धर्म का प्रचार होता गया। यह महावीर ही थे जिनके अथक प्रयासों और उनके द्वारा प्रवाहित ज्ञान की अविरल धाराओं से जैन धर्म का उदय हुआ।

जैन धर्म में अबतक 24 तीर्थंकर हुए हैं !

  • ऋषभदेव
  • अजीतनाथ
  • सम्भवनाथ
  • अभिनन्दननाथ
  • सुमतिनाथ
  • पद्मप्रभ
  • सुपार्श्वनाथ
  • चंद्रप्रभ
  • पुष्पदन्त
  • शीतलनाथ
  • श्रेयांसनाथ
  • वासुपूज्य
  • विमलनाथ
  • अनंतनाथ
  • धर्मनाथ
  • शांतिनाथ
  • कुंथुनाथ
  • अरनाथ
  • मल्लिनाथ
  • मुनिसुव्रतनाथ
  • नमिनाथ
  • नेमिनाथ
  • पार्श्वनाथ
  • महावीर स्वामी

अहिंसा परमों धर्म है जैन धर्म का मूल मंत्र

आपने “अहिंसा परमों धर्म” तो सुना ही होगा, यह एक मंत्र है जो जैन धर्म से निकला है और हिंसा ना करना जैन धर्म का मूल सिद्धांत है। इंसान और जानवर तो दूर की बात यह धर्म आंख से ना दिखने वाले जीवों को भी मारने से बचना चाहिए क्योंकि इसकी नजर में यह भी एक पाप है। यही वजह है कि जैन धर्म के ज्यादातर अनुयायी आलू, गाजर, मूली, प्याज, लहसुन, अदरक जैसी चीजों तक को हाथ नहीं लगाते क्योंकि ये सभी चीजें जमीन के अंदर से निकलती हैं। जैन धर्म के अनुसार यह सभी चीजें एक इंद्रि जीव कहलाते हैं जिनको मारना पाप है।

आइए जानते हैं कि अपने उदय के बाद जैन धर्म आगे प्रचार कैसे हुआ ?

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर के हाथों में आने से पहले जैन धर्म 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के हाथों से गुजरा जिन्होंने इस धर्म को इसे नई दिशा दी। माना जाता है पार्श्वनाथ को झारखंड के गिरिडीह जिले में शिखरजी पर्वत पर ज्ञान की प्राप्ति हुई जिसके बाद पार्श्वनाथ ने चार नियम दिए ,जिसे चतुर्वारण धर्म भी कहा जाता है। इसे आप जैन धर्म का पुराना नाम कह सकते हैं। पार्श्वनाथ ने कहा कि कभी भी हिंसा ना करना,हमेशा सच बोलना, चोरी ना करना और संपत्ति ना रखना ये चार नियम आवश्यक है। पार्श्वनाथ के यह नियम सुनकर लाखों लोग उनके अनुयायी बनते गए और इन नियमों का पालन अगले 250 वर्षों तक ऐसे ही होता रहा लेकिन इस बीच धीरे-धीरे वो समय आया जब
पार्श्वनाथ द्वारा दिए गए चार सिद्धांतों की अवहेलना शुरू हुई। कोई किसी नियम को नहीं मानता था कोई किसी नियम को लोग अपनी सहूलियत के हिसाब से नियमों का पालन करते फिर अपने द्वारा नए नियम जोड़ने लगे। यह वही दौर था जब समूचे भारत में एक बार फिर रिचुअल्स यानी रीति रिवाजों ने अपने पैर पसारने शुरू किए यह लोग धर्म से ज्यादा अंधविश्वास में विश्वास रखने लगे और तभी जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म हुआ जिन्हें जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।

महावीर स्वामी का सांसारिक जीवन परिचय

599 ईसा पूर्व में भगवान महावीर का जन्म कुण्डलपुर जो वर्तमान बिहार के वैशाली जिले में हुआ था, इनके पिता का नाम सिद्धार्थ (ज्ञातृ वंश के राजा) और माता का नाम त्रिशला (लिच्छवि वंश की राजकुमारी) था। महावीर की पत्नी का नाम यशोदा एवं इनकी एक पुत्री भी हुई जिसका नाम प्रियदर्शनी था। महावीर स्वामी का बचपन का नाम वर्धमान था लेकिन जब इन्हें 30 वर्ष की आयु में ज्ञान की प्राप्ति हुई तब से इनके अनुयायी इनको महावीर कहने लगे।

महावीर स्वामी का आध्यात्मिक जीवन परिचय

कहा जाता है जब महावीर 30 वर्ष के हुए तभी इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई, जिसके तुरंत बाद ही महावीर ने अपने बड़े भाई नंदी वर्धन की आज्ञा लेकर सन्यास ले लिया और जंगल चले गए। वहां 12 वर्षों में कठिन तपस्या करने के बाद वहीं बिहार के जृम्भिक ग्राम के पास (वर्तमान में यह स्थान जमुई जिले में माना जाता है) ऋजुपालिका नदी के किनारे साल के पेड़ के नीचे महावीर स्वामी को ज्ञान प्राप्त हुआ और यही स्थान आज जैन धर्म का एक अत्यंत पवित्र धार्मिक स्थल माना जाता है। महावीर स्वामी को ज्ञान प्राप्त होने के बाद वे अपने अनुयायियों के साथ ज्ञान बांटने निकल पड़े।

महावीर स्वामी द्वारा दी गयी शिक्षाएं और मान्यताएं

महावीर ने अपना पहला प्रवचन राजगीर में दिया था और अपने प्रवचन में पांच नियम बताए थे जिसमें से चार नियम पार्श्वनाथ द्वारा पहले ही बताए गए थे। नियमों में एक नियम की वृद्धि थी महावीर ने एक नियम और जोड़ा और बताया कि जैन धर्म के अनुयायियों को पांचवा नियम “ब्रह्मचर्य” भी अपनाना है।जैन ही वह इकलौता धर्म है जहां बूढ़े तो बूढ़े छोटी उम्र के बच्चे भी ब्रह्मचर्य अपनाते हैं जिसके बाद ही दुनिया के सभी मोह से बहुत दूर निकल जाते हैं। महावीर स्वामी ने इसके अलावा कुछ अन्य शिक्षाएं भी दी हैं जिन्हें जैन धर्मी ही नहीं कई अन्य धर्म के लोग भी मानते हैं। जैन धर्म में ईश्वर की कोई मान्यता नहीं है,यहां आत्मा की मान्यता है। महावीर स्वामी ने मूर्ति पूजा और कर्मकांड करने के लिए साफ-साफ शब्दों में मना किया जैसे उनके अनुयाई आज भी अनुसरण करते हैं। महावीर स्वामी ने पुनर्जन्म पर विश्वास करने को कहा है जिसका कारण है आत्मा जो कभी नहीं मरती है।

जल मंदिर ,पावापुरी (नालंदा)

527 ईसा पूर्व 72 वर्ष की उम्र में महावीर स्वामी पावापुरी (बिहार राज्य के नालंदा ज़िले में स्थित) में कार्तिक कृष्ण अमावस्या (दीपावली की रात) उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली और इस दुनिया को जैन धर्म सौंपकर चले गए।

जैन धर्म के दो सम्प्रदाय श्वेताम्बर और दिगंबर

महावीर के बाद इनके दो अनुयायी हुए जिनमें से एक थे श्वेतांबर और दूसरे थे दिगंबर। सफेद कपड़े धारण करने वालों को श्वेतांबर कहते हैं वस्त्र धारण ना करने वालों को दिगंबर कहते हैं, दोनों की मान्यता अलग है लेकिन दोनों की जड़े एक हैं।इतिहासकार बताते हैं मौर्य काल में एक ऐसा समय आया जब 12 वर्षों का अकाल पड़ा यही वह समय था जब श्वेतांबर अनुयाई दक्षिण की ओर चले गए जबकि दिगंबर अपनी जगह पर रहे, इस तरह जैन धर्म समूचे भारत में फैल गया।

जैन धर्म का प्रचार -प्रसार एवं साहित्य

जैसे-जैसे जैन धर्म के अनुयाई आगे बढ़ते रहे जैन धर्म का बोलबाला भारत के पड़ोसी देशों में होने लगा। जब बात प्रचार और प्रसार की आती है इनमें जैन धर्म के ग्रंथों का बड़ा योगदान है। जैन धर्म साहित्यिक रूप से बेहद धनी था इसमें कई धार्मिक ग्रंथ लिखे गए, यह संस्कृत के अलावा कई भाषाओं में लिखे गए हैं इन डॉक्यूमेंट्स को आगम कहा जाता है जिसमें महावीर से लेकर उनके अनुयायियों के उपदेश मौजूद हैं। परिशिष्ट पर्व, आचारांग सूत्र, कल्पसूत्र और भगवती सूत्र इस धर्म के सबसे प्रमुख ग्रंथों में से एक हैं।

जैन धर्म से मिलने वाली शिक्षाएं

इस धर्म में तपस्या और उपासना पर बहुत ज्यादा बल दिया जाता है। महावीर स्वामी ने आत्मा को वश में करने और उपयुक्त पांच नियमों का पालन करने के लिए तपस्या और उपवास पर सबसे अधिक बल दिया।उन्होंने दो प्रकार की तपस्या बताई एक बाह्य दूसरी आंतरिक।आंतरिक तपस्या में नम्रता सेवा और स्वाध्याय का भाव शामिल है, बाह्य तपस्या करने से व्यक्ति में अच्छे विचारों का विकास होता है ।
महावीर ने तपस्या का सबसे सरल साधन उपवास बताया इससे आत्मा और शरीर की शुद्धि होती है और मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग मिलता है ।

जैन धर्म के तीन रत्न (त्रिरत्न) क्या होते हैं

पहला है सम्यक दर्शन :- इस धर्म के अनुसार तीर्थंकरों और सिद्धांतों में विश्वास करना सम्यक दर्शन है।
इससे जुड़ी सत्य की अनुभूति का सही दृष्टिकोण मिलता है।

दूसरा है सम्यक ज्ञान :- सम्यक ज्ञान धार्मिक सिद्धांतों को पूर्णता सही रूप में समझने को मिलता है

तीसरा है सम्यक आचरण :- इसका अर्थ है दुष्कर्मों से मुक्ति जो हानिकारक हो और ऐसे सत्कर्म करना जो कल्याणकारी हो।

यह वह धर्म है जो मन को हर समय शुद्ध करता है यही वजह है कि जैन धर्म ने अपने आचरण की शुद्धता पर बल दियाये धर्म पञ्च महाव्रत को जीवन का आवश्यक कर्तव्य बताया है। अहिंसा सत्यं अस्तेयं ब्रह्मचर्यं च अपरिग्रहः।
एते पञ्च महाव्रताः साधोः धर्मस्य आधाराः॥
अर्थात्
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह — ये पाँच महाव्रत हैं, जो साधु के धर्म के मूल आधार हैं। यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि जैन धर्म उन धर्मों में से एक है जिसकी वजह से भारतीय संस्कृति में मानवतावादी विचारधारा का प्रसार हुआ। जैन धर्म ने जाति प्रथा और ऊंच-नीच के भेदभाव का हमेशा विरोध किया और सामाजिक समानता पर बल दिया। यही कारण रहा कि जैन धर्म के उदय के चलते ही हिंदू धर्म में प्रचलित जाति प्रथा के बंधन ढीले पड़े और ब्राह्मणों के प्रभुत्व में कमी आई। ये वो भी धर्म है जिसने समाज में अहिंसा और कठोर संयम का प्रसार किया। अहिंसा प्रमुख धर्म के वास्तविक जन्मदाता जैन है और इसी सिद्धांत के चलते वो भारतीय समाज का हिस्सा बन गए जिसे आज हम सभी देख रहे हैं।

जैन धर्म का भारतीय कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान

DILWADA MANDIR ,RAJSTHAN
जैन वास्तुकला

जैनों ने अनेक मंदिरों, स्तूपों, मठों, गुफाओं और मूर्तियों का निर्माण करवाया जिनमें उदयगिरि और एलोरा की गुफाएं बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। मध्य प्रदेश में खजुराहो के जैन मंदिर, कठियावाड़ की गिरनार तथा पालिताना की पहाड़ियों पर बने जैन मंदिर, रणकपुर तथा पारसनाथ के मंदिर यह सभी स्ट्रक्चर जैन कला के शीर्ष उदाहरण हैं। माउंट आबू (राजस्थान) में स्थित जैन मंदिरों का समूह विश्वविख्यात है, इनमे से दिलवाड़ा जैन मंदिर वास्तुकला के दृष्टिकोण से अत्यंत उच्च कोटि के माने गए हैं और मैसूर के श्रवण बेलगोला में गोमतेश्वर की मूर्ति के तो क्या ही कहने जिसकी खूबसूरती का हर कोई दीवाना हो जाएगा।

जनकल्याण एवं महिला अधिकार के प्रति जैन धर्म का योगदान

समाज सेवा के क्षेत्र में देखें तो जैन धर्म ने समाज को अनेक हॉस्पिटल, धर्मशाला, स्कूल, कॉलेज दिए हैं। इससे समाज पर अच्छा प्रभाव पड़ा और लोगों में दीन दुखियों, अनाथों, असहायों आदि की सहायता करने और उनको दान देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला। इसी तरह नारी शक्ति के लिए हमेशा धर्म आगे रहा है,इसके लिए महावीर स्वामी ने खुद नारियों की दशा सुधारने पर बल दिया।उन्होंने घोषित किया कि पुरुषों की भांति स्त्रियों को भी निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार है। स्त्रियों को जैन संघ में प्रविष्ट होने का अधिकार दिया इस प्रकार जैन धर्म में नारियों को हमेशा से पुरुषों के बराबर रखा गया।

स्वर्णिम काल के बाद कई समय ऐसा आया जब इस धर्म में अच्छे धर्म प्रचारकों का अभाव रहा जिसके चलते महावीर स्वामी के उपदेश लोगों तक पहुंचना बंद हो गए फिर उनमें भारी कमी आई। इसने धर्म के भीतर भेदभाव की भावना को भी जन्म दिया, वहीं महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद जैन धर्म के विभाजन ने इसको कमजोर कर दिया लेकिन इस सब के बाद भी अच्छी बात यह रही कि जैन धर्म कभी समाप्त नहीं हुआ बल्कि आदिकाल से चला आ रहा है। यह धर्म अपनी अहिंसावादी विचारधारा और शिक्षा के दम पर दुनिया के सबसे प्रिय धर्मों में से एक बना जिसके आज भी करोड़ो लोग अनुयायी हैं !

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