“रियासत छोड़ कुत्तों को साथ लेकर पाकिस्तान जानेवाले जूनागढ़ नबाब की दिलचस्प कहानी”

देश को आजाद हुए अभी सिर्फ दो ही महीने हुए थे इसी बीच एक जहाज पाकिस्तान जा रहा था। जहाज के पिछले हिस्से में हीरे जवाहरात से भरे हुए बक्से रखे हुए थे और जहाज के बीच में कई आर्टिस्ट बैठे हुए थे और आगे की सीट पर एक नवाब अपनी बीवियों के साथ बैठे हुए थे। लेकिन जो सबसे अलग बात थी वो यह थी कि इस जहाज में जवाहरात के बक्सों के साथ ही सैकड़ों कुत्ते भी बैठे हुए थे। लेकिन इससे भी दिलचस्प बात यह है कि जब ये जहाज पाकिस्तान पहुंचा तो नवाब को ध्यान आया कि वो अपने कुत्ते तो सारे ले आए थे लेकिन अपनी दो बेगम को वह हिंदुस्तान में ही भूल गए थे। असल में नवाब को बेगम से ज्यादा अपने कुत्तों से प्यार था। यह नवाब थे नवाब महावत खान तृतीय जिन्हें जूनागढ़ रियासत का आखिरी नवाब माना जाता है।

कौन थे नबाब महावत खान तृतीय और क्या थी इस नवाब खानदान की पृष्ठभूमि

जूनागढ़ का आखिरी नवाब सर मुहम्मद महाबत ख़ानजी रसूल ख़ानजी तृतीय थे जिनका शासनकाल 1911 से 1948 तक रहा।इनका जन्म 2 अगस्त 1900 और मृत्यु 17 नवंबर 1959 को हुआ। आजादी के बाद उन्होंने जूनागढ़ को देश में विलय करने से मना कर दिया था और बाद में जब दबाव बढ़ा तो वह पाकिस्तान भाग गए थे। नवाब महावत खान अफगानिस्तान के बाबी कबीले से जुड़े हुए थे। यह कबीला मुगलों का काफी वफादार था, हुमायूं के टाइम पर ये लोग आए थे और अलग-अलग युद्धों में इन्होंने हुमायूं की काफी मदद की थी जिसकी बदौलत वह मुगलों के पसंदीदा बन गए थे। आगे चलकर शाहजहां ने काठियावाड़ सहित पूरा गुजरात इन्हें संभालने के लिए दे दिया था।

हैदराबाद के बाद सबसे आमिर रियासत थी जूनागढ़

जूनागढ़ समुद्र के नजदीक था इसलिए समुद्री व्यापार की बदौलत जूनागढ़ ने खूब पैसा कमा लिया और एक अमीर रियासत बन गई थी। इसी खानदान में साल 1890 में नवाब महाबत खान नवाब बने। महाबत खान तृतीय को राजकाज से ज्यादा उनके कुत्तों में दिलचस्पी थी। वो ज्यादातर समय या तो अपने कुत्तों के साथ रहते या फिर विदेश में छुट्टियां मनाते थे। राजकाज का पूरा
काम यहां के दीवान संभाला करते थे फिर ऐसे ही समय बीतता रहा और साल 1947 में शाहनवाज भुट्टो को जूनागढ़ का दीवान बनाया गया क्योंकि पुराने दीवान की तबीयत खराब हो गई थी। फिर जुलाई 1947 में जब देश की रियासतों को मिलाने की बात हो रही थी तब भुट्टो जूनागढ़ का राजकाज के संभाल रहे थे और नवाब महाबत खान यूरोप में अपनी बेगम और अपने पसंदीदा कुत्तों के साथ छुट्टियां मना रहे थे।

कैसे बना जूनागढ़ रियासत भारत का हिस्सा

कहा जाता है कि नवाब महाबत खान तो हिंदुस्तान में शामिल होने के लिए तैयार थे लेकिन भुट्टो और मोहम्मद अली जिन्ना जूनागढ़ के बदले कश्मीर की सौदेबाजी करना चाहते थे इसी वजह से उन्होंने नवाब का ऐसा ब्रेन वाश किया कि उन्होंने 15 अगस्त 1947 के दिन जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। जूनागढ़ ने 15 सितंबर को पाकिस्तान से औपचारिक विलय का दस्तावेज़ (Instrument of Accession) भेजा जिसे 16 सितंबर को स्वीकार कर लिया गया। वीपी मेनन और सरदार पटेल और साथ ही साथ जूनागढ़ के लोगों ने नवाब को समझाने की बहुत कोशिश की और नवाब शायद मान भी जाते लेकिन हुआ यह कि भुट्टो ने किसी को भी नवाब से मिलने नहीं दिया। जब नवाब अपने फैसले को बदलने के लिए तैयार नहीं हुए तो काठियावाड़ी नेताओं ने शामलदास गांधी की अगुवाई में आरजी हुकूमत बनाकर नवाब के खिलाफ मोर्चा खोल दिया धीरे-धीरे इस आर्मी ने पूरी जूनागढ़ पर कब्जा कर लिया। हालत ऐसी हो गई कि जूनागढ़ को भुट्टो के भरोसे छोड़कर नवाब 25 अक्टूबर 1947 की आधी रात को पाकिस्तान भाग गए। 9 नवंबर 1947 को भारत ने जूनागढ़ पर प्रशासनिक नियंत्रण कर लिया। भारत सरकार ने “स्थायी प्रशासन” के नाम पर जूनागढ़ में सेना भेज दी और शासन संभाला। 20 फरवरी 1948 को भारत सरकार ने जनमत संग्रह (Plebiscite) कराया जिसमे वहां की 99% जनता ने भारत में शामिल होने का समर्थन किया और जूनागढ़ को औपचारिक रूप से भारत में मिला लिया गया।

सब कुछ छोड़कर पाकिस्तान पहुँचने वाले नवाब के हिस्से आई सिर्फ निराशा

नवाब जब पाकिस्तान पहुंचे तो उन्हें कराची में ठहराया गया, बाद में उधर भुट्टो के लाख चाहने के बावजूद जूनागढ़ भारत का
हिस्सा हो गया और नवंबर में भुट्टो भी पाकिस्तान चले आए। हुआ यह कि नवाब अपना सब कुछ छोड़कर पाकिस्तान पहुंच गए थे लेकिन उन्हें वहां वो इज्जत नहीं मिली जो उन्होंने सोची थी। एक तरफ जहां भारत में अपनी रियासत देने वाले राजाओं और नवाबों को भारत में बहुत सम्मान मिला,सरकार उन्हें ढाई लाख से लेकर तीन लाख तक का प्रिवी पर्स दिया करती थी और उनके महल वगैरह को उन्होंने अपने ही पास रहने दिया गया। वहीं दूसरी तरफ अपने महलों और अपनी रियासतों को छोड़कर पाकिस्तान जाने वाले नवाबों को पाकिस्तान में कोई अलग से रियासत नहीं मिली यानी कि वे अपनी जमीन पहले ही छोड़ चुके थे और वहां कुछ हासिल नहीं हुआ। हां पाकिस्तान सरकार उन्हें पैसे दिया करती थी लेकिन वह बहुत कम हुआ करते थे।अगर महाबत खान भारत में रहते तो उन्हें करीब दो से 3 लाख रुपए उस दौर में मिलते जो कि उस दौर के हिसाब से करोड़ों रुपए होते लेकिन सीधे-साधे नवाब भुट्टो और जिन्ना की बातों में आ गए और उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया।

जूनागढ़ रियासत के राजा पाकिस्तान जाकर हुए गुमनाम और दीवान के सितारे हुए बुलंद

जूनागढ़ रियासत के दीवान शहनवाज भुट्टो तेज तर्रार आदमी थे, उन्हें पाकिस्तान में खूब इज्जत मिली और राजनीति में एंट्री भी मिल गई। इस तरह धीरे-धीरे जहां नवाब की शान धूल में मिलती जा रही थी वहीं पाकिस्तान की राजनीति में भुट्टो का सितारा बुलंद हो रहा था। शहनवाज आगे चलकर पाकिस्तान के पीएम बने लेकिन नवाब को पहचानने वाला कोई भी नहीं था। 1959 में नवाब महाबत खान ने आखिरी सांस ली और उनके जाने के बाद उनके बेटे जूनागढ़ के नवाब बने एक ऐसे नवाब बने जिनके पास अपनी कोई रियासत नहीं थी। उधर साल 1972 में दीवान शहनवाज भुट्टो के बेटे जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने यानी कि असली सत्ता नवाब के हाथ से फिसलकर दीवान के पास आ गई थी।

पाकिस्तान में शामिल हुई रियासतों के राजाओं को कोई पहचानने वाला नहीं बचा था

भारत में इंदिरा गांधी को लगा अगर प्रिवी पर्स को खत्म कर दे तो उनकी इमेज भी बहुत बढ़ सकती है वैसे भी लोग राजाओं और नवाबों से परेशान हो चुके थे। प्रीवी पर्स हटाने के उनके इस फैसले का फायदा उन्हें अगले चुनावों में भी मिला लेकिन ऐसे बहुत सारे राजा-महाराजा और नवाब थे जो भारत में रुक कर, कुछ ना कुछ पाकर खुश थे। लेकिन नवाब महाबत खान सब कुछ खोकर पाकिस्तान चले गए थे उन्हें इज्जत तो दूर पाकिस्तान में कोई उनकी खबर भी नहीं लेता था।वहां भी सरकार को लगा अगर पर्स को खत्म कर देंगे तो लोग उन्हें भी गरीबों का मसीहा समझेंगे और उनका ध्यान बांग्लादेश वाली हार से भी हट जाएगा इसलिए उन्होंने भी इंदिरा गांधी की देखा–देखी प्रीवी पर्स को खत्म करने के लिए ऑर्डिनेंस पेश किया यानी कि अब वो जूनागढ़ के नवाब का खर्चा पानी भी बंद करने वाले थे। उनके इस फैसले को भारत छोड़कर पाकिस्तान जाने वाले सभी नवाबों का विरोध मिला उनके बयान अखबारों की सुर्खियां बनने लगी। कुछ नवाबों ने कहा कि पाकिस्तान बनाते वक्त तो उन्होंने मुल्क के लिए अपने खजाने खोल दिए थे और अब सरकार है कि उनके साथ इतना बुरा बर्ताव कर रही है उन्हें अगर इस बात का पता होता कि पाकिस्तान में उनके साथ कुछ ऐसा होगा तो वह शायद कभी भारत छोड़कर आते ही नहीं। काफी विरोध के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो ने हालांकि यह पेंशन तो वापस देनी शुरू कर दी लेकिन इसकी रकम बहुत ज्यादा कम थी।

जूनागढ़ रियासत एक कहानी बनकर इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गयी

नवाब महाबत खान की तीसरी पीढ़ी से आने वाले नवाब मोहम्मद जहांगीर बाबी अपने दादा के फैसले पर बहुत अफसोस करते हैं और एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद कहा था कि जूनागढ़ हैदराबाद के बाद दूसरे नंबर का सबसे धनवान राज्य था। उनके दादा अपनी संपत्ति जूनागढ़ में ही छोड़कर पाकिस्तान चले आए थे यहां तक कि उन्होंने जूनागढ़ की संपत्ति के बदले में पाकिस्तान से कोई संपत्ति भी नहीं मांगी तब भी पाकिस्तान ने उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दिया। आज उन्हें जो पेंशन मिलती है वह किसी चपरासी की सैलरी से भी कम है। वैसे यह हाल सिर्फ जूनागढ़ के नवाबों का नहीं था बल्कि भारत छोड़कर पाकिस्तान जाने वाले हर एक नवाब के साथ कुछ ऐसा ही हुआ और उनके परिवारों की हालत भी आज ऐसी ही है। साल 1971 में पाकिस्तान की सरकार ने नवाबों का रॉयल स्टेटस हमेशा के लिए खत्म कर दिया यानी कि अब यह नवाब नवाब भी नहीं रहे एक तरफ जहाँ भारत की रियासतों में सिंधिया, गायकवाड़ और निजाम राजाओं के पास उनके पूर्वजों के महल और किले तो हैं ही साथ में उनकी राजनीति में अच्छी खासी जगह भी है। जूनागढ़ से पाकिस्तान चले जाने वाले नवाब महाबत खान तृतीय और उनके साथ ही उन 12 नवाबों भी जो भारत छोड़कर पाकिस्तान गए थे वो सब अपने समृद्ध इतिहास को इतिहास के पन्ने में ही दफ़न कर गए !

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