चिली के तट से हजारों किलोमीटर दूर, प्रशांत महासागर के अनंत नीले विस्तार के बीच एक छोटा-सा एकाकी द्वीप बसा है। चारों ओर हजारों किलोमीटर तक फैले खुले समुद्र से घिरा यह द्वीप मानो पूरी तरह दुनिया से कटा हुआ महसूस होता है। यही है ईस्टर आइलैंड, जिसे स्थानीय लोग रापा नुई कहते हैं। पहली नज़र में यह किसी और दूरस्थ द्वीप जैसा लग सकता है, लेकिन इसके भीतर एक ऐसा रहस्य छुपा है जिसने सदियों से खोजकर्ताओं, वैज्ञानिकों और यात्रियों को आकर्षित किया हुआ है।
यह द्वीप अपने विशाल पत्थर के पुतलों (जिन्हें मोआई कहा जाता है) के लिए प्रसिद्ध है। ये पुतले सिर्फ बड़े ही नहीं, बल्कि अत्यंत विशालकाय हैं और कुछ तो बहुमंज़िला इमारत जितने ऊँचे हैं। लोग लंबे समय से सोचते रहे हैं कि इन्हें किसने बनाया, कैसे बनाया और क्यों बनाया ?
क्या यह किसी उन्नत प्राचीन सभ्यता का काम था या फिर शायद एलियंस का काम है ?
आइए जानते हैं इस द्वीप की दुनिया से परिचय की कहानी।
लगभग 300 वर्ष पहले 1722 में इस द्वीप के खोज से इसकी कहानी शुरू होती है । एक डच खोजी जैकब रोगेवीन प्रशांत महासागर में यात्रा कर रहे थे, जब संयोगवश उन्हें यह द्वीप ईस्टर संडे के दिन मिला और इसी कारण उन्होंने इसका नाम ईस्टर आइलैंड रखा।
जब जैकब ने इस भूमि पर कदम रखा, तो उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा जो उन्हें स्तब्ध कर दिया। सैकड़ों विशाल पुतले, जिनकी पीठ समुद्र की ओर और चेहरा भूमि की ओर था तथा इन पत्थर के दैत्यों की लंबी नाक, नुकीली ठुड्डी और गंभीर भाव मानो चुपचाप द्वीप की रक्षा कर रहे हों। कुछ पुतले गर्व से खड़े थे, तो कुछ ज़मीन पर गिरे हुए थे।
द्वीप के लोग (जो इसे रापा नुई कहते थे) उस समय बहुत कम रह गए थे। लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि वे भी नहीं जानते थे कि ये पुतले किसने और कब बनाए। यह रहस्य तब से अब तक दुनिया को उलझाए हुए है।
दुनिया से दूरस्थ द्वीप है ईस्टर द्वीप जो आबाद है।
ईस्टर आइलैंड दुनिया के सबसे दूर बसे आबाद द्वीपों में से एक है। इसका सबसे नज़दीकी भूभाग पिटकेर्न आइलैंड लगभग 2,075 किलोमीटर दूर है और वहाँ कोई नहीं रहता है। सबसे नज़दीकी आबाद द्वीप मंगारेवा है जो 2,600 किमी दूर है और वहां लगभग 500 लोग रहते हैं। चिली का तट 3,512 किलोमीटर दूर है। आज इस द्वीप तक पहुँचने का एकमात्र तरीका हवाई यात्रा है जो चिली से लगभग पाँच घंटे में पूरी होती है।
यह छोटा सा द्वीप आकार में लगभग 24 किलोमीटर लंबा और 12 किलोमीटर चौड़ा है लेकिन यह लगभग 900 मोआई पुतलों का घर है।
मोआई दुनिया में अद्वितीय हैं।
अधिकांश को ज्वालामुखीय टफ़ नामक पत्थर से तराशा गया है, जो ज्वालामुखी की राख से बना होता है। इनके चेहरों में एक खास शैली होती है जैसे लंबे कान, ऊँची नाक, गहरी आँखों के गड्ढे और कसे हुए होंठ। कुछ में मूंगे की आँखें जड़ी हैं, तो कुछ में नहीं भी है।
सबसे ऊँचा खड़ा मोआई लगभग 33 फीट (10 मीटर) ऊँचा और करीब 90,000 किलोग्राम वज़नी है जो लगभग 14 अफ्रीकी हाथियों के बराबर है। बिना आधुनिक मशीनों के इतनी भारी वस्तु को हिलाना लगभग असंभव लगता है। 2012 में पुरातत्वविदों ने एक चौंकाने वाली खोज किए कि कई मोआई के शरीर ज़मीन के नीचे दबे हुए हैं। यानी ये सिर्फ सिर नहीं बल्कि पूरे शरीर वाले पुतले हैं और इनमें धड़, हाथ और पीठ पर नक्काशी भी शामिल है। एक अधूरा पुतला, जो खदान में मिला जो अगर पूरा होता तो 70 फीट ऊँचा और लगभग 300 टन वज़नी होता। इसका आकार ही इस रहस्य को और गहरा कर देता है कि इन्हें कैसे बनाया और पहुँचाया गया होगा।
क्या है एलियन सिद्धांत और इसकी सच्चाई ?
लंबे समय तक कुछ लोगों का मानना था कि ये पुतले एलियंस ने बनाए या फिर किसी खोई हुई उन्नत तकनीक से बनाई गई लेकिन आधुनिक पुरातत्व ने इसकी सच्चाई उजागर की है। शोधकर्ताओं ने पाया कि ये पत्थर द्वीप के रानो राराकू नामक खदान से निकाले गए थे। प्राचीन कारीगरों ने कठोर पत्थरों के औज़ारों से मुलायम पत्थर को तराशा और ये पुतले बनाए। प्रयोगों से पता चला कि एक मोआई को बनाने में 12 लोगों की टीम को लगभग एक साल लगता था।
अक्सर तराशने की प्रक्रिया में पुतला अभी भी चट्टान से जुड़ा होता था। पहले सामने और किनारों को आकार दिया जाता और फिर पीछे से काटकर अलग किया जाता था। यही कारण है कि कई अधूरे पुतले आज भी खदान में पड़े हैं जो कभी पूरी तरह अलग ही नहीं किए गए।
बिना साधन के मोआई को कैसे पहुँचाया गया ?
पुतले को बनाने का रहस्य तो सुलझ गया, लेकिन इन्हें ढोना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था और कुछ पुतलों को 18 किलोमीटर दूर तक पहुँचाया गया। बिना पहियों, लोहे के औज़ार या जानवरों के रापा नुई लोगों ने यह कैसे किया ये समझना बहुत ही गंभीर विषय है।
गिरी हुई मूर्तियों से वैज्ञानिकों को संकेत मिले कि जो मूर्तियाँ मुँह के बल गिरी थीं वे ढलानों पर मिलीं, और जो पीठ के बल गिरी थीं वे चढ़ाई के पास मिलीं। और इससे अंदाज़ा होता है कि इन्हें खड़े-खड़े ले जाया गया होगा।
एक सिद्धांत यह है कि इन्हें “चलाया” गया। दोनों ओर रस्सियाँ बाँधकर बारी-बारी से खींचा जाता, जिससे पुतला आगे की ओर झुककर धीरे-धीरे आगे बढ़ता जैसे कोई इंसान चलता है। प्रयोगों में वैज्ञानिकों ने इसी तरीके से 50 फीट तक एक नकली मोआई को सफलतापूर्वक हिलाया।
रापा नुई के लोगों का उत्थान और पतन की कहानी।
पुरातात्विक प्रमाण बताते हैं कि पॉलिनेशियन लोग लगभग 300 ईस्वी में ईस्टर आइलैंड पहुँचे। ये कुशल नाविक थे, जो लकड़ी की डोंगियों में प्रशांत महासागर पार कर दूरस्थ द्वीपों तक पहुँचते थे। जब वे पहुँचे तब द्वीप हरा-भरा था और घने जंगल, विशाल ताड़ के पेड़, पक्षी और उपजाऊ मिट्टी से भरा था। जीवन सुखमय था और जनसंख्या बढ़ने लगी। समय के साथ, रापा नुई लोगों ने खेती, घर बनाने, नाव बनाने और मोआई ढोने के लिए पेड़ों को अंधाधुंध काटा जिससे धीरे-धीरे जंगल समाप्त हो गए। पेड़ों के बिना मिट्टी बह गई, फसलें नष्ट हो गईं और भोजन की कमी हो गई तथा संसाधनों की कमी से लोगों में तनाव बढ़ा। पुरातत्वविदों को ऐसे कंकाल मिले जिनमें चोट के निशान थे ,संभवतः हिंसक संघर्ष या गृहयुद्ध के भी आसार हैं। कुछ रिपोर्टों के अनुसार, महिलाओं को निशाना बनाया गया, जिससे महिला जनसंख्या में भारी कमी आई। जनसंख्या घटने के साथ समाज टूटने लगा और कई पुतले अधूरे ही छोड़ दिए गए। बाद में यूरोपीय आगमन और बीमारियों ने जनसंख्या को और कम कर दिया।
आज किस हालत में है रहस्मयी ईस्टर आईलैंड।
आज ईस्टर आइलैंड चिली का हिस्सा है और यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। मोआई आज भी प्रशांत महासागर की हवाओं में मौन, गर्वित और रहस्यमयी रूप खड़े हैं। ये मानव रचनात्मकता, दृढ़ संकल्प, और पर्यावरण विनाश के खतरे की चेतावनी देते हैं।
मोआई क्यों बनाए गए?
कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि ये पूर्वजों के सम्मान में बनाए गए, हर पुतला किसी शक्तिशाली प्रमुख या नेता का प्रतीक था। कुछ मानते हैं कि ये प्रतिष्ठा या क्षेत्रीय सीमा के चिह्न थे। सच्चाई तो कोई नहीं जानता और यही इस रहस्य को और रोचक बनाता है।
ईस्टर आइलैंड हमें मानव सभ्यता को इशारा करती है कि कोई भी समाज अद्भुत कार्य कर सकता है, लेकिन उसे प्रकृति के साथ संतुलन में रहना होगा। रापा नुई लोगों ने दुनिया की सबसे अद्वितीय पुरातात्विक धरोहरों में से एक छोड़ी है जो सदियों बाद भी विस्मय और प्रेरणा देती है।