सत्य, साहस और सेवा के प्रतीक – जनता के गवर्नर सत्यपाल मलिक की कहानी !

भारत की राजनीति में कुछ ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं जो सिर्फ पदों से नहीं, अपने सिद्धांतों, विचारों और कर्मों से पहचाने जाते रहे हैं। श्री सत्यपाल मलिक का नाम उन्हीं गिने-चुने लोगों में शुमार होता है जिन्होंने राजनीति को सत्ता का माध्यम नहीं, बल्कि सेवा का मार्ग माना था। अपने राजनीतिक जीवन के सफ़र में उन्होंने न सिर्फ ईमानदारी और स्पष्टवादिता दिखाई, बल्कि समाज के लिए एक प्रेरणास्रोत भी बने।

अभावों में जन्मा आत्मबल जो गांव की चौपाल से राजभवन तक का सफर किया।

24 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के हिसावदा गांव में जन्मे सत्यपाल मलिक ने बेहद संघर्षपूर्ण बचपन व्यतीत किया। मात्र 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया लेकिन इस अभाव और विषम परिस्थिति ने उन्हें तोड़ा नहीं, बल्कि और निखार दिया। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने मेरठ कॉलेज से राजनीति शास्त्र की पढ़ाई की और छात्र संघ के अध्यक्ष बने और यहीं से उनके सार्वजनिक जीवन की शुरुआत हुई।

राजनीति में सादगी और सिद्धांतों का उदाहरण रहे हैं सत्यपाल मलिक।

सत्यपाल मलिक वर्ष 1974 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए और बाद में उन्होंने राज्यसभा और लोकसभा दोनों में जनता का प्रतिनिधित्व किया। 1980 से 1989 तक वे राज्यसभा सांसद रहे और 1989 से 1991 तक अलीगढ़ से लोकसभा सांसद। उनके स्पष्ट विचार, प्रभावशाली भाषण और नीतिगत सोच ने उन्हें जनता के बीच अलग पहचान दिलाई ,और यही उन्हें दूसरों से अलग बनाती है।
वर्ष 1990 में उन्हें केंद्र सरकार में संसदीय कार्य और पर्यटन राज्य मंत्री के रूप में अहम जिम्मेदारी मिली। लेकिन मलिक की पहचान कभी पदों की नहीं रही, बल्कि विचारों और कार्यशैली की रही है। वे उन विरले नेताओं में से हैं जिन्होंने सत्ता के सबसे ऊँचे गलियारों में रहकर भी गांव, गरीब, किसान और जवान की बात हमेशा किया।

राज्यपाल के रूप में पांच राज्यों में बेहद प्रभावशाली कार्यकाल रहे हैं।

सत्यपाल मलिक को भारत के इतिहास में यह अनूठा गौरव प्राप्त है कि वे पांच अलग-अलग राज्यों के राज्यपाल रहे हैं। इन राज्यों में बिहार, ओडिशा (अतिरिक्त प्रभार), जम्मू-कश्मीर, गोवा और मेघालय का नाम शामिल है। हर राज्य में उन्होंने प्रशासन में पारदर्शिता और शिक्षा सुधार को नई दिशा दी तथा जनहित को सर्वोपरि रखा।

बिहार (2017–2018): शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य
राज्यपाल रहते हुए बिहार में उन्होंने बीएड कॉलेजों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कड़ी कार्यवाही किए। 35 वर्षों से रुके छात्रसंघ चुनावों को सफलतापूर्वक आयोजित कराना भी उनकी एक ऐतिहासिक उपलब्धि रही। उन्होंने विश्वविद्यालयों में वार्षिक कैलेंडर लागू किया, बायोमेट्रिक उपस्थिति अनिवार्य की और महिला शौचालय निर्माण को अनिवार्य बनाया।

जम्मू-कश्मीर (2018–2019): ऐतिहासिक निर्णयों का साक्षी रहा कार्यकाल
अगस्त 2018 में उन्हें जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया। यहीं पर उनके नेतृत्व में भारतीय राजनीति के इतिहास का एक अहम मोड़ आया जब अनुच्छेद 370 और 35A का हटाया गया। यह ऐतिहासिक निर्णय 5 अगस्त 2019 को लिया गया, जो जम्मू-कश्मीर को भारत के साथ पूर्णतः एकीकृत करने की दिशा में निर्णायक कदम था।
इस दौरान उन्होंने राजभवन को आम जनता के लिए खोला, एक 24×7 शिकायत प्रकोष्ठ की स्थापना किए और शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य किए। उनके नेतृत्व में 42 नए कॉलेजों की स्थापना हुई और लद्दाख में एक नया विश्वविद्यालय खोला गया। उन्होंने पंचायत चुनाव जैसे लंबे समय (17 वर्ष) से रुके हुए लोकतांत्रिक अभ्यासों को भी सफलतापूर्वक सम्पन्न कराया।

गोवा (2019–2020): सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय एकता का संदेश
गोवा में उन्होंने न सिर्फ प्रशासनिक कार्यों में सक्रियता दिखाई, बल्कि इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल जैसे कार्यक्रमों से सामाजिक सरोकारों को जोड़ने का कार्य किया। वे अमीरों की समाज के प्रति उनकी निष्क्रियता पर करारा प्रहार किया और कहा कि “जो अमीर समाज के लिए कुछ नहीं करता वो बोरे में पड़े सड़े आलू जैसा है।”

मेघालय (2020–2022): संवेदनशीलता का परिचय
मेघालय के राज्यपाल के रूप में भी उन्होंने पारदर्शी शासन और शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता को प्राथमिकता देने का काम किए। यहां उन्होंने शहीदों का सम्मान, प्रतिभाओं को प्रोत्साहन और समाज के वंचित तबकों के लिए काम किए।

राजस्थान से रहा है इनका आत्मिक जुड़ाव।

चौधरी चरण सिंह के अनुयायी श्री सत्यपाल मलिक का वीरभूमि राजस्थान से गहरा नाता रहा है। उन्होंने अजमेर में अपने मित्र प्रो. सांवरलाल जाट की मूर्ति अनावरण में हिस्सा लिया और उन्हें सच्चा किसान नेता बताया। वीर तेजाजी जैसे लोकदेवता की धरती सुरसुरा में जाकर उन्होंने धर्मशाला का शिलान्यास किया और वहां की संस्कृति और परंपरा को आदरपूर्वक नमन किया। वे झुंझुनूं में आयोजित कार्यक्रम में भी पहुंचे, जहां उन्होंने शहीदों को श्रद्धांजलि दी और प्रतिभाओं का सम्मान किया। ये सब उनके आत्मिक जुड़ाव को दर्शाती है,जो सिर्फ पद के कारण नहीं बल्कि विचार और संवेदना के स्तर पर है।

किसान आंदोलन के समय उनकी बेबाक बयानबाजी ने सत्ता को आईना दिखाया।

वर्ष 2020–21 में जब देश में किसान आंदोलन चला, तब श्री मलिक ने सरकार से अलग राय रखते हुए किसानों के पक्ष में खुलकर बयान दिए। उन्होंने कहा कि सत्ता में रहकर भी जनता की बात कहना एक नेता का धर्म होता है और यही स्पष्टवादिता उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी ताकत रही है। उन्होंने खुले मंचों से कहा कि सरकार को किसानों की बातें सुननी चाहिए। इसके लिए उन्हें सत्र पक्ष से आलोचना भी झेलनी पड़ी लेकिन वे निर्भीकता से अपनी बात रखी।

बालिका शिक्षा के हिमायती रहे श्री मालिक एक प्रेरक व्यक्तित्व के धनी

एक समारोह में उन्होंने कहा था कि “लड़कियों को जब सही संस्थानों में शिक्षा दी जाती है, तो वे लड़कों से चार कदम आगे निकल जाती हैं।” यह कथन उनके विचारों को दर्शाता है, जो केवल भाषणों में नहीं बल्कि नीतिगत निर्णयों में भी परिलक्षित होता है।
श्री सत्यपाल मलिक का जीवन इस बात का प्रमाण है कि संघर्ष, सिद्धांत और सेवा से कोई भी व्यक्ति गांव की चौपाल से उठकर राजभवन तक पहुंच सकता है और वहां बैठकर भी आम लोगों की आवाज़ बन सकता है। उनका जीवन यह सिखाता है कि राजनेता सिर्फ योजनाएं नहीं बनाते बल्कि वे समाज के संस्कार और दिशा भी तय करते हैं। वे गांव की चौपाल से उठे, राजभवन तक पहुंचे, लेकिन न अपनी जड़ों से कटे, न जनता से दूरी बनाई।
उनका कहना था “कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अगर सच न बोले तो वह अपने कर्तव्य के साथ न्याय नहीं कर रहा।”
आज जब राजनीति में मौन और समझौता संस्कृति हावी है तो ऐसे में वर्तमान पीढ़ी को श्री सत्यपाल मलिक जैसे लोग से सीखने की जरूरत है।

जिस दिन राष्ट्रहित में अनुच्छेद 370 को हटाने की छाया में उनका नाम जुड़ा था, उसी दिन 5 अगस्त 2025 को उनका निधन होना जैसे एक ऐतिहासिक चक्र की पूर्णता है। आज उनकी आवाज़,आत्मविश्वास और भारतीय लोकतंत्र पर उनका अटूट विश्वास अब एक विरासत बन गया है।

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