साल 1822 में फ्रांस का जुरा प्रांत के छोटे-से गांव डोल में एक साधारण, गरीब मगर मेहनती परिवार में लुईस पाश्चर का जन्म हुआ। पिता जीन-जोज़ेफ पाश्चर चमड़े का काम करते थे ,दिन भर जानवरों की खाल तैयार करना, बाज़ार में बेचना, और किसी तरह घर का खर्च चला लेते थे। उनकी पत्नी जीन-एटियेन बड़ी सीधी-सादी महिला थीं, जिनका सपना बस इतना था कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर अपनी किस्मत बदल दें।
घर में किताबों की भरमार नहीं थी, न ही पढ़ाई का कोई खास माहौल लेकिन फिर भी पिता का मन ठान चुका था कि “भले ही मैं अनपढ़ रह गया, लेकिन मेरा बेटा पढ़-लिखकर अफसर बनेगा, और हम गरीबी से बाहर निकलेंगे।”
पाश्चर के बचपन का संघर्ष और मंदबुद्धि का ताना।
लुई पाश्चर बचपन में कोई विलक्षण छात्र नहीं थे। गणित और विज्ञान में उनका दिमाग धीरे चलता, और कक्षा में वे अक्सर पीछे रह जाते थे। सहपाठी बच्चे उन्हें मंदबुद्धि कहकर चिढ़ाते थे और यह सुनकर पिता का मन दुखी हो जाता, लेकिन वे बेटे को समझाते की “धीरे चलो, पर रुको मत।
लुई का बचपन साधारण खेलों, मछली पकड़ने और चित्रकारी में बीता। वे काफी अच्छे चित्रकार थे, यहां तक कि कुछ शिक्षकों ने उन्हें कला की पढ़ाई करने की सलाह दी लेकिन किस्मत ने उनके लिए विज्ञान की दिशा चुनी थी।
घटना जिसने पाश्चर की जिंदगी बदल दी।
गांव में पास के जंगल से एक पागल भेड़िया आया और आठ लोगों को काट गया। कुछ ही दिनों में उनमें से पांच लोग असहनीय पीड़ा के साथ मर गए। लोगों में अजीब डर फैल गया और कई लोग पानी देखकर घबरा जाते, मुंह से झाग निकलने लगता,तथा दर्द के मारे तड़पकर मौत हो जाती। लुई ने यह सब अपनी आंखों से देखा और उनका मासूम मन सवालों से भर गया। उन्होंने सोचा कि “अगर ये बीमारी इतनी खतरनाक है, तो इसका इलाज क्यों नहीं है और इन लोगों को दवा देकर बचाया क्यों नहीं गया ?”
उनके पिता ने गंभीर स्वर में जवाब दिया कि “अगर इलाज चाहिए, तो खुद खोजो, खूब पढ़ो, मेहनत करो, और नई खोज करके लोगों की जान बचाओ।” यह बात लुई के दिल में हमेशा के लिए बस गया और उन्होंने ठान लिया कि एक दिन वे इस बीमारी का इलाज जरूर खोजेंगे।
छोटे गांव से पेरिस तक कि यात्रा आसान नहीं थीं।
गरीब परिवार के लिए बड़े शहर में पढ़ाई करवाना आसान नहीं था। पिता ने कर्ज लिया और लुई को पेरिस भेजा और शहर उनके लिए बिल्कुल नया था। वहां की भीड़, शोर, और कठिन पढ़ाई के बीच कई बार वे घर लौटने का सोचते, लेकिन पिता का सपना उन्हें थामे रखता। उन्होंने रसायन विज्ञान और भौतिकी में पढ़ाई पूरी की। प्रतिभा को देखकर उन्हें विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बना दिया गया, लेकिन शोध उनका असली जुनून था। रात-रात भर वे प्रयोगशाला में रहकर छोटे-छोटे प्रयोग करते, नोट्स बनाते, और सोचते की इस बीमारी की जड़ कहां है।
सूक्ष्म जीवों की दुनिया का किया खुलासा।
19वीं सदी में बहुत से लोग मानते थे कि भोजन अपने आप सड़ता है लेकिन पाश्चर ने साबित किया कि ऐसा नहीं है और इसके पीछे सूक्ष्म जीवाणु होते हैं।
उन्होंने दिखाया कि दूध, शराब, और अन्य तरल पदार्थ को गर्म करके तुरंत ठंडा करने पर ये जीवाणु मर जाते हैं, और चीज़ें लंबे समय तक सुरक्षित रहती हैं। यह प्रक्रिया आज “पाश्चरीकरण” (Pasteurization) के नाम से जानी जाती है। यह खोज सिर्फ खाने की चीज़ों को सुरक्षित रखने तक सीमित नहीं रही बल्कि इसने बीमारियों के अध्ययन का दरवाजा खोल दिया।
बीमारी और वायरस पर दुनिया की सोच बदल गई।
पाश्चर ने सोचा कि अगर जीवाणु भोजन खराब कर सकते हैं, तो वे बीमारियां भी फैला सकते हैं और हो सकता है कि रेबीज जैसी बीमारी का कारण भी कोई सूक्ष्म जीव हो।
उन्होंने खतरनाक प्रयोग शुरू किए जिसमें पागल कुत्तों, भेड़ियों और अन्य जानवरों पर अध्ययन करना शुरू किया। यह काम बेहद जोखिम भरा था और कई बार वे खुद संक्रमण के करीब पहुंच जाते लेकिन उनके लिए इलाज खोजने का संकल्प डर से बड़ा था।
निष्क्रिय विषाणु और वैक्सीन की खोज का रास्ता।
मुर्गियों में फैलने वाली एक बीमारी (फाउल कॉलरा) पर शोध करते हुए पाश्चर ने एक दिलचस्प तथ्य पाया कि अगर वायरस या बैक्टीरिया को कमजोर कर दिया जाए और फिर शरीर में डाला जाए, तो शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता उसे पहचानकर असली वायरस से लड़ना सीख लेती है।
यही सिद्धांत उन्होंने रेबीज के मामले में अपनाया और लंबे प्रयोगों के बाद उन्होंने “निष्क्रिय” रेबीज वायरस तैयार किया और कुत्तों पर आजमाया तथा नतीजा सफल रहा।
वह दिन जिसने चिकित्सा क्षेत्र में मानव इतिहास बदल दिया।
1885 में पेरिस की एक महिला अपने 9 साल के बेटे जोसेफ मीस्टर को लेकर पाश्चर के पास आई। लड़के को पागल कुत्ते ने कई बार काटा था और उस समय रेबीज का मतलब था कि कुछ ही हफ्तों में दर्दनाक मौत हो जाएगी। पाश्चर जानते थे कि उन्होंने इंसानों पर यह वैक्सीन पहले कभी नहीं आजमाई थी। असफल होने पर आलोचना, कानूनी कार्रवाई, और यहां तक कि जेल भी हो सकती थी, लेकिन सामने एक मासूम की जिंदगी दांव पर थी।
जोखिम के बावजूद उन्होंने साहसिक निर्णय लिया और 21 दिन तक वैक्सीन के इंजेक्शन लगाए गए। सभी सांसें थामे नतीजे का इंतजार कर रहे थे और चमत्कार हुआ कि लड़का पूरी तरह स्वस्थ हो गया।
यह खबर पूरे यूरोप में फैल गई और लोग पाश्चर को “मानवता का रक्षक” कहने लगे।
फ्रांस सरकार ने की पाश्चर संस्थान की स्थापना और निजी जीवन का दर्द।
फ्रांस सरकार ने उनके नाम पर “पाश्चर संस्थान” की स्थापना की, जहां आज भी वायरस, बैक्टीरिया और टीकों पर शोध होता है। रेबीज के अलावा उन्होंने एंथ्रेक्स और कई अन्य बीमारियों के टीके भी विकसित किए। उनकी खोजों ने चिकित्सा विज्ञान की सोच ही बदल दी और अब बीमारी को “भाग्य” नहीं, बल्कि “वैज्ञानिक चुनौती” माना जाने लगा।
सफलता के बावजूद पाश्चर का निजी जीवन खुशहाल नहीं था क्योंकि शोध के चक्कर में वे परिवार को समय नहीं दे पाते थे। उनकी तीनों बेटियां बीमारी से कम उम्र में ही चल बसीं तथा पत्नी दुख और अकेलेपन से मानसिक तनाव में रहने लगीं। पाश्चर खुद लकवे के शिकार हो गए, लेकिन उन्होंने व्हीलचेयर से भी शोध जारी रखा।
वे कहते थे कि “मैंने कभी विज्ञान के लिए आधा दिल नहीं लगाया,जब काम किया, पूरी आत्मा से किया।”
73 वर्ष की आयु में हुआ निधन लेकिन अमर हो गई विरासत।
28 सितंबर 1895 को 73 वर्ष की आयु में लुई पाश्चर का निधन हो गया और फ्रांस ने उन्हें राष्ट्रीय नायक का दर्जा दिया। पेरिस में उनकी समाधि पाश्चर संस्थान के भीतर है, जहां वैज्ञानिक आज भी उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं।
आज अगर किसी को पागल कुत्ते ने काटा हो और वह समय रहते इंजेक्शन लगवा ले, तो यह लुई पाश्चर के त्याग और मेहनत का प्रतिफल है। उन्होंने एक छोटे गांव के बच्चे की तरह देखे सपने को सच कर दिखाया और करोड़ों जिंदगियां बचाईं।
अगर एक साधारण बालक भी अगर सपनों में अडिग रहे, तो वह पूरी दुनिया की किस्मत बदल सकता है।