यूरोप का नाम सुनते ही ज्यादातर लोगों के माइंड में पेरिस, लंदन, बार्सिलोना या फिर रोम का ख्याल आता है। बहुत ही कम लोग होंगे जिनके जहन में बेलग्रेड, बाल्टी, मोगीलेव या किशनाव का नाम आया होगा हालाँकि ये शहर भी यूरोप में ही हैं। लेकिन यूरोप के इस हिस्से को हम अक्सर भूल जाते है। यही वो चीज़ है जो यूरोप को दो हिस्सों में डिवाइड करती है – एक है ईस्टर्न यूरोप और दूसरा वेस्टर्न यूरोप।
वेस्टर्न यूरोप अपनी अमीर और वेल-डेवलप्ड इकॉनमी की वजह से जाना जाता है, जहाँ पर जीडीपी पर कैपिटा लगभग $68,000 के करीब और वहीं ईस्टर्न यूरोप में जीडीपी पर कैपिटा सिर्फ़ $14,000 है यानी लगभग पांच गुना अंतर। अगर हम GNI (ग्रॉस नेशनल इनकम) पर कैपिटा को देखें (जो कि एवरेज एनुअल इनकम को दर्शाता है) तो साफ़ दिखाई देता है कि सारे हाई इनकम एरियाज वेस्टर्न यूरोप में हैं, जबकि लो इनकम ईस्टर्न यूरोप में है। ये अंतर सिर्फ इकोनॉमिक नहीं बल्कि टेक्नोलॉजी, एजुकेशन, ग्लोबल इंफ्लूएंस जैसे हर पहलू पर वेस्टर्न यूरोप लीड करता है।
यूरोप एक ऐसी इकोनॉमिक लाइन से डिवाइडेड है जो वर्ल्ड वॉर 2 के बाद से एक इंच भी नहीं बदली। एक ही कॉन्टिनेंट होने के बावजूद ईस्टर्न यूरोप और वेस्टर्न यूरोप में काफी आर्थिक असमानताएं आ गई। वेस्टर्न यूरोप के तुलना में ईस्टर्न यूरोप के शहर का आर्थिक पिछड़ा होने के पीछे यूरोप की हिस्ट्री ,पॉलिटिक्स और उसकी ज्योग्राफी बहुत महत्वपूर्ण कारण हैं जैसे कि कम्युनिज्म का असर, युद्ध और सीमित व्यापारिक अवसर।
एक छोटा लेकिन पावरफुल कॉन्टिनेंट है युरोप
दुनिया का दूसरा सबसे छोटा कॉन्टिनेंट होने के बावजूद यूरोप 20वीं और 21वीं सदी का सबसे पावरफुल कॉन्टिनेंट रहा है। आज भी कई बड़ी आर्थिक ताकतें यूरोप में हैं और इसलिए यूरोप का वर्ल्ड पॉलिटिक्स पर बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। यूरोप के साउथ में मेडिटेरेनियन, ब्लैक सी और कैस्पियन सी हैं और नॉर्थ में आर्कटिक ओसियन तथा वेस्ट में अटलांटिक ओशन है। अटलांटिक ओशन में मौजूद आयरलैंड और आइसलैंड भी यूरोप का हिस्सा हैं। यहाँ तक कि ग्रीनलैंड भी सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से यूरोप का हिस्सा है।
ईस्ट और वेस्ट यूरोप की तरक्की में इतना फर्क क्यों है ?
इसकी वजह जानने के लिए हमें इतिहास में पीछे जाना होगा जब वर्ल्ड वॉर 2 के बाद यूरोप दो हिस्सों में बंट गया। एक तरफ डेमोक्रेटिक और कैपिटलिस्ट देश तथा दूसरी तरफ सोवियत यूनियन के कंट्रोल में कम्युनिस्ट देश थे। कम्युनिस्ट आइडियोलॉजी का मकसद था कि हर चीज़ पर सरकार का कंट्रोल हो (जैसे जमीन, रिसोर्सेज़, बिजनेस) ताकि हर किसी को बराबर मौके और रिटर्न मिले। लेकिन इसका नुकसान यह था कि लोगों के पास बिजनेस या इनोवेशन करने का इंसेंटिव ही नहीं था क्योंकि मुनाफा सरकार लेती थी। इसके विपरित वेस्ट यूरोप में कैपिटलिज्म के तहत बिजनेस फ्री थे और प्रॉफिट पर उनका अधिकार था। ऐसे में 1945 से 1991 के बीच वेस्टर्न यूरोप ने इंडस्ट्रियल ग्रोथ की और ईस्टर्न यूरोप काफी पीछे छूट गया। 1991 में सोवियत यूनियन टूट गया और ईस्टर्न यूरोप की कई देश आज़ाद हो गए, लेकिन इतने साल बाद भी वो वेस्टर्न यूरोप से पीछे हैं।
ईस्टर्न यूरोप की ज्योग्राफी और नेचुरल रिसोर्सेज भी है वजह
एक तरफ फ्लैट लैंड्स (यूक्रेन, पोलैंड, बेलारूस) जो फर्टाइल हैं लेकिन बिना नेचुरल डिफेंस के, इसलिए हमेशा अटैक होते रहे। दूसरी तरफ साउथ-ईस्ट में बाल्कन कंट्रीज़, जो पहाड़ी क्षेत्र हैं और यहाँ इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना मुश्किल रहा।
1991 के बाद जितने भी युद्ध यूरोप में हुए वो सभी ईस्टर्न यूरोप में ही हुए जैसे युगोस्लाविया, रशिया-यूक्रेन वॉर। इन युद्धों से पलायन बढ़ा और स्किल्ड वर्कफोर्स की भी कमी हुई।
वेस्टर्न यूरोप का सबसे बड़ा एडवांटेज समुद्रों तक एक्सेस है जिससे व्यापार में काफी सुगमता हो जाती है। नॉर्थ में बाल्टिक सी,वेस्ट में नॉर्थ सी और अटलांटिक तथा साउथ में मेडिटेरेनियन सी है। 16वीं सदी में इन्हीं समुद्री रास्तों से वेस्ट यूरोप ने दुनिया के दूसरे हिस्सों को खोजा, कॉलोनियाँ बसाईं और लूटा।
इसके विपरीत ईस्ट यूरोप या तो लैंडलॉक था या बहुत ही कठिन चोकप्वाइंट्स से गुजरने के बाद ही उसे अटलांटिक मिल पाता था (जैसे बॉस्फोरस स्ट्रेट, जिब्राल्टर स्ट्रेट, डेनिश स्ट्रेट) जो दूसरी ताक़तों के कंट्रोल में थे।
नेचुरल रिसोर्सेस में फर्क भी ईस्ट यूरोप के पीछे होने के महत्वपूर्ण कारण हैं। 20वीं सदी में वेस्ट यूरोप को नॉर्थ सी में ऑयल और गैस के रिजर्व्स मिले जिससे नॉर्वे, ब्रिटेन, नीदरलैंड्स और जर्मनी बहुत अमीर हो गए जबकि ईस्ट यूरोप के पास फर्टाइल लैंड के अलावा और कुछ खास नहीं था। अगर कम्युनिज्म न होता, तो शायद ईस्ट यूरोप आज दुनिया की फूड बास्केट होता।
ईयू और करप्शन के कारण भी पिछड़ा पूर्वी यूरोप
सोवियत यूनियन के पतन के बाद ईस्टर्न यूरोप के देशों के सामने एक नई शुरुआत का मौका था। कई देशों ने लोकतंत्र अपनाकर मार्केट इकोनॉमी की ओर कदम बढ़ाया और यूरोपियन यूनियन (EU) का हिस्सा बनने की इच्छा जताई। EU सदस्यता उन देशों के लिए एक उम्मीद की किरण थी जिससे बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, विदेशी निवेश, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और ओपन मार्केट्स तक पहुँच हो सकता था। यूरोपीय यूनियन में शामिल होने की शर्त “कम भ्रष्टाचार, मजबूत संस्थाएँ, और कानून का राज” थी।
1991 के बाद कुछ देश जैसे पोलैंड, चेक रिपब्लिक, एस्टोनिया ही अच्छे से डेवेलप हो पाए क्योंकि वो EU के मेंबर बन गए। इन देशों ने यूरोपीय यूनियन की शर्तों पर गंभीरता से काम किया और अपेक्षाकृत तेज़ विकास किया लेकिन बुल्गारिया, रोमानिया, सर्बिया और यूक्रेन जैसे देश आज भी क्रोनिक करप्शन और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहे हैं। यही वजह है कि EU के सदस्य होने के बावजूद उन्हें वैसा आर्थिक ताकत नहीं मिल पाया जैसा वेस्टर्न यूरोप को मिला था। EU की मेंबरशिप के लिए करप्शन कंट्रोल एक ज़रूरी शर्त है और यूरोप की सबसे ज्यादा करप्ट टॉप 10 स्टेट्स जो ज्यादातर ईस्टर्न यूरोप में हैं। वेस्ट यूरोप में भी करप्शन है, लेकिन वो नेशनल इंटरेस्ट्स के आगे नहीं जाता। वेस्टर्न यूरोप के देश दशकों से मजबूत संस्थानों और ट्रांसपेरेंसी पर काम कर चुके थे लेकिन ईस्टर्न यूरोप में भ्रष्टाचार सत्ता का हिस्सा बन चुका था। पुराने कम्युनिस्ट ढांचे में पनपे नेताओं ने नई व्यवस्था में भी नेपोटिज्म, ब्राइबरी और पॉलिटिकल कैप्चर जैसी चीजें जारी रखा। यूरोपीय यूनियन की फंडिंग और स्कीमें अक्सर भ्रष्ट अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबों में चली जाती जिससे आम नागरिकों तक उसका फायदा नहीं पहुँच पाया।
क्या है भविष्य में उम्मीदें
ईस्टर्न यूरोप को जो दो चीज़ों ने पीछे रखा वो है ज्योग्राफी और कम्युनिज्म।लेकिन कहते हैं कि “जो आज फर्श पर है, वो कल तख्त पर हो सकता है”।सबसे बड़ी मिसाल पोलैंड जो कभी यूरोप का सबसे गरीब देश था वो अब सुपरपावर बनने की राह पर हैऔर वहीं वेस्टर्न यूरोप की कई इकॉनमीज़ अब खुद धराशाई होने की तरफ बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए आयरलैंड, जिसकी जीडीपी पर कैपिटा यूरोप में लक्ज़मबर्ग के बाद सबसे ज्यादा है लेकिन वहाँ के लोग अब देश छोड़ रहे हैं।