भारत के राजनीतिक मंच पर चौथे, पांचवें और छठे दशक में एक ऐसा नाम बार-बार सुर्खियों में आया, जिसने सत्ता की राजनीति को चुनौती दी, जनता की आवाज को संसद से लेकर सड़कों तक बुलंद किया, और अपने सिद्धांतों के साथ कभी समझौता नहीं किया। वो नाम था, डॉ. राम मनोहर लोहिया जिन्हें लोग भारत छोड़ो आंदोलन के अग्रणी नेता और समाजवाद के ध्वजवाहक के रूप में जानती थी, जबकि पांचवें और छठे दशक की पीढ़ी उन्हें स्वतंत्र भारत में विरोधी राजनीति के तेजतर्रार, अद्भुत बुद्धिमत्ता वाले और अदम्य साहस के प्रतीक नेता के रूप में पहचानती थी।
प्रारंभिक जीवन और स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर संसद तक की यात्रा
डॉ. लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के अकबरपुर कस्बे में हुआ। प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट, फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की तथा इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वे जर्मनी के बर्लिन विश्वविद्यालय गए, जहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त किए।
बर्लिन में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने यूरोप में चल रहे समाजवादी आंदोलनों को करीब से देखा, लेकिन साथ ही महसूस किया कि यूरोपीय समाजवाद भारतीय और एशियाई समाज के लिए पूरी तरह उपयुक्त नहीं है।
1934 में वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में शामिल हुए और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनका योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा था। भूमिगत रहते हुए उन्होंने कांग्रेस रेडियो का संचालन किया, जिसके माध्यम से क्रांतिकारी संदेश पूरे देश में प्रसारित होते थे। उन्होंने गोवा मुक्ति आंदोलन में भी सक्रिय भागीदारी निभाई।
मार्क्सवाद और गांधीवादी के संगम से दिया समाजवाद का नया दर्शन
डॉ. लोहिया का राजनीतिक दर्शन न तो पूरी तरह मार्क्सवादी था, न ही केवल गांधीवादी। उन्होंने इन दोनों विचारधाराओं के सार को भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप मिलाकर एक नई समाजवादी रूपरेखा प्रस्तुत की।
उनका मानना था कि राजनीति केवल सत्ता हासिल करने का साधन नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह जनता की सार्वभौम इच्छा शक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम होनी चाहिए।
संसद में उनकी प्रखर वाणी, तीखे सवाल और निर्भीक आलोचना ने उन्हें उस दौर के सबसे चर्चित और सम्मानित नेताओं में शामिल कर दिया। उनकी बातें केवल विरोध के लिए नहीं होती थीं, बल्कि उनमें एक स्पष्ट दृष्टि और समाधान का संकेत होता था।
आज़ादी से पहले ही बदलाव की बयार के दिए थे संकेत
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में डॉ. लोहिया का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था। उन्होंने आज़ादी से पहले ही यह संकेत दे दिया था कि स्वतंत्र भारत की राजनीति में केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि सोच और व्यवस्था में भी परिवर्तन होना चाहिए। यदि जयप्रकाश नारायण ने स्वतंत्रता के बाद देश की नीतियों में बदलाव की राह दिखाई, तो राम मनोहर लोहिया ने आज़ादी से पहले ही वह बदलाव की नींव डाल दी थी।
उनकी निर्विवाद समाजवादी छवि केवल समर्थकों में ही नहीं, बल्कि विरोधियों के बीच भी सम्मान की थी। समाजवादी विचारों और प्रखर देशभक्ति के कारण उनका व्यक्तित्व सबके लिए प्रेरणास्रोत बन गया।
जाति और आर्थिक असमानता के खिलाफ संघर्ष और उनके समाजवादी विचार
डॉ लोहिया के अनुसार :
• “आर्थिक गैर-बराबरी और जाति-पांति जुड़वा राक्षस हैं, और अगर एक से लड़ना है तो दूसरे से भी लड़ना जरूरी है।”
उनकी दृष्टि में समतामूलक समाज के बिना आर्थिक समानता संभव नहीं थी। उनका प्रयास और दर्शन ऐसे समाज के निर्माण में था जिसमें जाति ,जन्म और आर्थिक स्थिति के आधार पर कोई भेदभाव न हो।
उन्होंने पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों से मुक्त समाजवाद की अवधारणा पेश की जो भारतीय मूल्यों और परिस्थितियों के अनुरूप था।
डॉ लोहिया ने गांधीवादी मूल्यों के चार सिद्धांत के साथ एक स्वतंत्र समाजवाद की अवधारणा दी।
1. सत्याग्रह
2. साध्य और साधन की शुद्धता
3. छोटी मशीन प्रौद्योगिकी
4. राजनीति का विकेंद्रीकरण
उनका मानना था कि इन सिद्धांतों के माध्यम से ही पूंजीवादी शोषण और असमानता को खत्म कर, एक समानता-आधारित समाज का निर्माण किया जा सकता है।
लोहिया ने समाज के सामने प्रस्तुत किया सप्त क्रांति दर्शन
1. पुरुष और महिला में समानता
2. रंगभेद का अंत
3. जन्म और जाति आधारित भेदभाव का उन्मूलन
4. विदेशी शासन और शोषण का अंत, विश्व सरकार का निर्माण
5. आर्थिक असमानता मिटाना
6. हथियारों के उपयोग पर रोक
7. निजी आज़ादी पर होने वाले आघात का मुकाबला
ये सातों सिद्धांत आज भी सामाजिक और राजनीतिक विमर्श में प्रासंगिक हैं।
नव-समाजवाद और वैश्विक दृष्टि पर डॉ लोहिया के विचार
डॉ लोहिया का मानना था कि यूरोपीय समाजवाद एशिया की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है। परिस्थितियों के अनुरूप उन्होंने नव-समाजवाद की परिकल्पना दी, जिसके तीन मूल सिद्धांत थे।
• सभी उद्योग, बैंक और बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण
• पूरे विश्व में जीवन स्तर का सुधार
• एक विश्व संसद की स्थापना
उनकी यह दृष्टि केवल भारत तक सीमित नहीं थी, बल्कि वैश्विक समानता और न्याय पर आधारित थी।
गैर-कांग्रेसवाद और लोकसभा में संघर्ष के प्रतीक रहे डॉ लोहिया
राजनीतिक रणनीति के तौर पर उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद का आह्वान किया था। उनका कहना था :
“जिंदा कौम पांच साल इंतजार नहीं करती”
“अगर सड़कें खामोश हो जाएं तो संसद आवारा हो जाएगी।”
ऐसी क्रांतिकारी विचार तत्कालीन राजनीति में नई ऊर्जा भर दी थी और आज भी प्रासंगिक मानी जाती है।
1963 में उन्होंने उपचुनाव जीतकर लोकसभा में प्रवेश किया। यहां उन्होंने “तीन आने बनाम पंद्रह आने” की बहस छेड़कर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सीधी चुनौती दी। यह बहस आय-व्यय में असमानता और जनता की कठिनाइयों को उजागर करने का प्रतीक बन गई।
आर्थिक मोर्चे पर लोहिया ने संपत्ति आधारित विशेषाधिकार खत्म करने, आय-व्यय के अनुपात को 1:10 पर सीमित करने, भूमि का पुनर्वितरण करने, छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने और मूल्य-नियंत्रण की नीति अपनाने पर जोर दिया। उनका स्पष्ट मानना था कि राजनीति का मुख्य उद्देश्य लोगों का पेट भरना है, और जो राजनीति यह नहीं करती, वह भ्रष्ट और अन्यायी है।
समाजवादी आंदोलन एवं पिछड़े वर्गो में किया राजनीतिक चेतना का प्रसार
स्वतंत्रता के बाद लोहिया ने समाजवादी आंदोलन को सक्रिय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1967 में उन्होंने गैर-कांग्रेसी दलों को एकजुट कर गठबंधन सरकारें बनाईं, जिसके परिणामस्वरूप आधे से अधिक राज्यों में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। उनकी यह पहल भारतीय राजनीति में गठबंधन युग की शुरुआत मानी जाती है।
वर्तमान में पिछड़ी जातियों का जिस तरह राज–काज और शासन में हिस्सा बढ़ा है, उसकी परिकल्पना राममनोहर लोहिया ने ही किया था इसलिए उन्हें भारत की मूक क्रांति यानी साइलेंट रिवॉल्यूशन का नायक कहा जाता है।
संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ”, 1960 के दशक में डॉ. लोहिया द्वारा सोशलिस्ट पार्टी के एक प्रमुख नारे के रूप में इस्तेमाल किया गया था जिसका उद्देश्य पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा, रोजगार और राजनीति में अधिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना था।
12 अक्टूबर 1967 को मात्र 57 वर्ष की आयु में डॉ. राम मनोहर लोहिया का निधन हो गया लेकिन उनके विचार, संघर्ष और राजनीतिक दृष्टि आज भी भारतीय राजनीति और समाज के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने दिखाया कि राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि जनता के अधिकारों और समानता के लिए संघर्ष का नाम है।