भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और आज़ाद भारत की राजनीति में जिन व्यक्तित्वों ने गहरी छाप छोड़ी, उनमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) का नाम सर्वोपरि है। वे केवल स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं थे, बल्कि समाज सुधारक, विचारक और जनआंदोलन के महान नेता भी थे। उन्होंने अपने जीवन के हर पड़ाव पर सत्ता के बजाय जनता और समाज के हितों को प्राथमिकता दी इसी कारण उन्हें “लोकनायक” कहा गया एवं आज भी उनका दर्शन भारतीय राजनीति और समाज के लिए मार्गदर्शक है।
जयप्रकाश नारायण का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्तूबर 1902 को बिहार के सारण जिले के सिताब दियारा गाँव में हुआ। उनका गाँव गंगा और सरयू नदी के संगम पर बसा था, जो बाढ़ की विभीषिका से अक्सर प्रभावित रहता था। उनके पिता हरसुदयाल पटना में नहर विभाग में कार्यरत थे और माता फूलरानी देवी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। सात भाई-बहनों में जयप्रकाश चौथे नंबर पर थे और बाल्यकाल से ही उनमें प्रतिभा और अनुशासन की झलक थी। नौ वर्ष की आयु में वे पटना चले गए और वहाँ कॉलेजिएट स्कूल में पढ़ाई शुरू किए। इसी दौरान उन्हें स्वतंत्रता और स्वराज्य की चर्चाओं से परिचित होने का अवसर मिला।
जेपी का विवाह और गांधीवादी प्रभाव
1920 में 18 वर्ष की आयु में उनका विवाह प्रभावती देवी से हुआ। प्रभावती स्वयं भी सामाजिक और आध्यात्मिक झुकाव वाली महिला थीं। विवाह के बाद जेपी उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर हुए। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के एक भाषण से प्रेरित होकर उन्होंने पटना कॉलेज छोड़ दिया और गांधीवादी आदर्शों से जुड़ने हेतु बिहार विद्यापीठ में प्रवेश लिया, जहां उनकी सोच और दृष्टिकोण और व्यापक हुए। वे गांधी के सिद्धांतों से गहराई से प्रभावित हुए। 1922 में उन्होंने अपनी पत्नी को गांधीजी के आश्रम में छोड़ दिया और उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका रवाना हो गए।
अमेरिका का अनुभव और समाजवादी विचारधारा
अमेरिका में जेपी ने कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय तथा अन्य संस्थानों से पढ़ाई किये एवं खर्च चलाने के लिए पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें वहाँ मेहनत–मजदूरी भी की । खेतों, कारखानों और होटलों में काम करते हुए उन्होंने मजदूर वर्ग की पीड़ा को करीब से देखा और इसी अनुभव ने उनके भीतर समाजवादी सोच को जन्म दिया।
कार्ल मार्क्स और लेनिन के विचारों ने उन पर गहरा प्रभाव डाला ,जिससे वे समाज में समानता और न्याय की आवश्यकता को पहचाने। अमेरिका प्रवास ने उन्हें यह सिखाया कि राष्ट्र का विकास केवल आर्थिक समृद्धि से नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समान अवसरों से संभव है।
1929 में अपनी माँ की अस्वस्थता के कारण वे भारत लौट आए। लौटते वक्त ही यूरोप में उनकी मुलाकात कई क्रांतिकारी नेताओं से हुई और उनके भीतर राजनीतिक चेतना को मजबूती मिली।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जेपी का योगदान
भारत लौटने के बाद जेपी जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर कांग्रेस में शामिल हुए और उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।
1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया और नासिक जेल भेजा गया। जेल में रहते हुए उनकी मुलाकात राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव और अशोक मेहता जैसे समाजवादी नेताओं से हुई, जहां से उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भूमिका निर्णायक रही थी। जब गांधीजी और अन्य बड़े नेता जेल में थे, तब जेपी भूमिगत रहकर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। हजारीबाग जेल से साथियों के साथ उनका फरार होना और फिर भूमिगत रहते हुए स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा देना उनकी दृढ़ता का उदाहरण है।
स्वतंत्र भारत में जेपी की भूमिका उल्लेखनीय रही
आजादी के बाद जेपी सक्रिय राजनीति में बने रहे, लेकिन उनका लक्ष्य सत्ता प्राप्ति नहीं था। वे मानते थे कि स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ तभी है जब समाज से गरीबी, अन्याय और असमानता मिटे।
1950 और 60 के दशकों में उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। गाँव-गाँव घूमकर उन्होंने जमींदारों से ज़मीन दान में लेने और भूमिहीनों में बाँटने का अभियान चलाया। यह उनका प्रयास था कि समाज में समानता और बंधुत्व कायम हो।
जयप्रकाश नारायण द्वारा संपूर्ण क्रांति का आह्वान
1970 के दशक तक देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार, प्रशासनिक तानाशाही और बेरोज़गारी ने युवाओं को बेचैन कर दिया था। बिहार आंदोलन के दौरान छात्र और नौजवान जेपी के पास पहुँचे और उनसे नेतृत्व की अपील किया। 74 वर्ष की आयु में, जब वे राजनीति से संन्यास ले चुके थे, उन्होंने फिर से सक्रिय भूमिका निभाई। 1974 में पटना के गांधी मैदान से उन्होंने "संपूर्ण क्रांति" का नारा दिया। यह आंदोलन केवल राजनीतिक बदलाव का नहीं था, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में सुधार के लिए क्रांति का आह्वान था।
उन्होंने कहा "यह केवल सत्ता परिवर्तन का आंदोलन नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में बदलाव का आंदोलन है।"
• राजनीतिक क्रांति
• सामाजिक क्रांति
• आर्थिक क्रांति
• सांस्कृतिक क्रांति
• शैक्षणिक क्रांति
• बौद्धिक क्रांति
• आध्यात्मिक क्रांति
जेपी का मानना था कि वास्तविक परिवर्तन सत्ता बदलने से नहीं, बल्कि व्यवस्था बदलने से होगा। इस आंदोलन में लाखों छात्र-युवा सड़कों पर उतर आए। जेपी ने भ्रष्टाचार और तानाशाही प्रवृत्तियों के खिलाफ जनांदोलन खड़ा कर दिया। इस आंदोलन की ताकत से इंदिरा गांधी सरकार की नींव हिल गई।
देश में आपातकाल की घोषणा और लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेपी की अपील
25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू किया और नागरिक अधिकारों को कुचल दिया गया। विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया और प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई। जेपी ने इसे लोकतंत्र पर हमला बताया और जनता से सड़कों पर उतरने की अपील किए। उनकी अपील पर लाखों लोग आंदोलन से जुड़ गए। 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा और पहली बार देश में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी।
इस जनतांत्रिक परिवर्तन का श्रेय काफी हद तक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व और जनता को जगाने की क्षमता को जाता है।
जेपी का जीवन सरल था लेकिन नैतिक विचार प्रबल थे
जेपी का जीवन सादगी, त्याग और ईमानदारी का उदाहरण था एवं वे पद और सत्ता से हमेशा दूर रहे। प्रधानमंत्री बनने का अवसर भी उन्हें मिला, पर उन्होंने ठुकरा दिया। उनका मानना था कि सच्चे अर्थों में सेवा का काम सत्ता से बाहर रहकर ही किया जा सकता है। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि लोग उन्हें “दूसरे गांधी” के रूप में देखने लगे लेकिन जेपी ने हमेशा खुद को गांधीजी का अनुयायी माना।
जेपी के अंतिम दिन, सम्मान और उनकी विरासत
आपातकाल के दौरान जेल की यातना और बढ़ती उम्र के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। 1979 के बाद वे गंभीर बीमारियों से जूझते रहे एवं 8 अक्टूबर 1979 को पटना में उनका निधन हो गया। उनके योगदान के लिए उन्हें 1965 में मैग्सेसे पुरस्कार मिला और मरणोपरांत 1999 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
जेपी की संपूर्ण क्रांति का दर्शन आज भी प्रासंगिक है। आज जब राजनीति फिर से अवसरवाद और भ्रष्टाचार की चपेट में है, तब उनकी बातें याद आती हैं।
“क्रांति केवल सत्ता परिवर्तन से नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन से होती है।”
वे मानते थे कि लोकतंत्र जनता की सक्रिय भागीदारी से ही मजबूत हो सकता है। युवाओं को वे परिवर्तन का असली वाहक मानते थे। आज भी जब कोई अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाता है, तो लोकनायक की याद ताज़ा हो जाती है। वे केवल एक नेता नहीं, बल्कि जन-चेतना के प्रतीक हैं।
जेपी स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आपातकाल तक हर दौर में जनता की आवाज़ को बुलंद किए और सच्चा नेता वही है जो सत्ता की लालसा से मुक्त होकर जनता के हितों के लिए लड़े। उनकी संपूर्ण क्रांति केवल एक आंदोलन नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन है। आज के दौर में भी यदि राजनीति, समाज और शिक्षा उनके बताए रास्ते पर चले, तो भारत निश्चित ही अधिक न्यायपूर्ण और समानता आधारित समाज बन सकता है।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण की कहानी आने वाली पीढ़ियों के लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी।