भारत की महान भूमि ने सदियों से ऐसे महान संत, योगी और विचारक पैदा किए हैं जिन्होंने न केवल अपने देश बल्कि पूरे विश्व को आध्यात्मिकता, मानवता और नैतिकता का मार्ग दिखाया है और इन्हीं में से एक अमर व्यक्तित्व हैं स्वामी विवेकानंद।
उनकी जीवन यात्रा साधारण बालक नरेंद्रनाथ दत्त से लेकर विश्वविख्यात सन्यासी विवेकानंद तक केवल आध्यात्मिक खोज की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस दौर के भारत की पीड़ा, संघर्ष और पुनर्जागरण की गाथा भी है।
बालक नरेंद्रनाथ से स्वामी विवेकानंद बनने तक की कहानी
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता के एक बंगाली परिवार में हुआ और बचपन में उनका नाम नरेंद्रनाथ दत्त रखा गया। पिता विश्वनाथ दत्त एक प्रख्यात वकील थे और मां भुवनेश्वरी देवी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। नरेंद्र बचपन से ही मेधावी, जिज्ञासु और आत्मविश्वासी थे तथा वे संगीत, खेलकूद और अध्ययन में समान रूप से निपुण थे। लेकिन उनके मन में हमेशा एक सवाल उठता रहता था कि “क्या ईश्वर वास्तव में है?”।
यह सवाल उन्हें तरह-तरह के धार्मिक संगठनों तक ले गया, लेकिन संतोषजनक उत्तर उन्हें तब मिला जब वे श्री रामकृष्ण परमहंस से मिले। श्री रामकृष्ण उनके गुरु बने और नरेंद्र को आध्यात्मिक मार्ग पर दृढ़ कर दिया।
कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए किया भारत भ्रमण
21 वर्ष की उम्र में पिता का निधन हो गया और परिवार कर्ज और गरीबी में डूब गया। नरेंद्र ने काली मां के मंदिर में जाकर धन या सुख नहीं, बल्कि ज्ञान, विवेक और वैराग्य मांगा और यही उनकी जिंदगी का निर्णायक मोड़ बना।
गुरु रामकृष्ण के निधन के बाद उन्होंने बाकी शिष्यों की जिम्मेदारी उठाई। आगे चलकर 1888 में उन्होंने साधु वेश धारण कर भारत भ्रमण शुरू किया और इस यात्रा में उनके पास बस एक कमंडल और लाठी थी।
स्वामी विवेकानंद ने कन्याकुमारी से लाहौर तक यात्रा की जिसमें उन्होंने भारत की गरीबी, अशिक्षा और सामाजिक भेदभाव को करीब से देखा। भ्रमण से मिले इस अनुभव ने उन्हें समझाया कि भारत का असली उत्थान तभी संभव है जब आम जनता को शिक्षा, आत्मविश्वास और संगठन मिले।
यात्रा के दौरान ही उनका संकल्प और मजबूत हुआ कि वे भारत के लिए अपना जीवन समर्पित करेंगे।
जब शिकागो सम्मेलन में गूंजा भारत का स्वर
11 सितंबर 1893 को शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित हुआ, जहां दुनिया के अलग-अलग धर्मों के प्रतिनिधि जुटे थे और भारत की ओर से युवा सन्यासी स्वामी विवेकानंद ने मंच संभाला था।
मंच पर पहुंचते ही उन्होंने कहा “सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका”। इन पाँच शब्दों ने सभागार में ऐसा असर डाला कि सात हज़ार श्रोता तालियों की गड़गड़ाहट से खड़े हो गए। उस क्षण में भारत की आवाज़, भारत की आत्मा और भारत का गौरव पूरी दुनिया के सामने जीवंत हो उठा था।
स्वामी विवेकानंद जी का भाषण केवल धार्मिक चर्चा नहीं था, बल्कि उसमें भारत की आध्यात्मिक विरासत, वेदांत की गहराई और मानवता का संदेश गूंज रहा था। उन्होंने बताया कि भारत ने हमेशा से शरणार्थियों, सताए हुए और पीड़ित लोगों को अपनाया है। यह वह संदेश था जिसने पश्चिमी जगत को भारत की ओर नई दृष्टि से देखने पर मजबूर कर दिया।
शिकागो सम्मेलन के मंच से दुनियाभर में बढ़ाया भारत का मान
1893 में उन्हें शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में जाने का अवसर मिला जहां शुरुआत में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आर्थिक तंगी, रहने की दिक्कतें और सम्मेलन में बोलने की अनुमति मिलने तक का इंतज़ार जैसी समस्याएं आई, लेकिन जब वे मंच पर पहुँचे तो उनकी आवाज़ ने दुनिया को चौंका दिया। उनका भाषण धार्मिक कट्टरता के खिलाफ, सहिष्णुता और सार्वभौमिक भाईचारे के पक्ष में था।
उन्होंने कहा “हम केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम सभी धर्मों को सत्य मानते हैं।”
उनके इन शब्दों ने भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलाया और भारतीय संस्कृति की छवि से दुनिया को परिचित करवाया।
स्वामी विवेकानंद का नाम और पश्चिम में भारतीय संस्कृति का प्रचार
ऐसा कहा जाता है कि खेत्री के महाराज अजीत सिंह ने उन्हें “विवेकानंद” नाम दिया। संस्कृत में विवेक का अर्थ है ज्ञान और आनंद का अर्थ सुख है और यह नाम उनके व्यक्तित्व को पूरी तरह दर्शाता था।
शिकागो धर्म सम्मेलन के बाद वे चार साल तक अमेरिका और ब्रिटेन में रहे। वहां उन्होंने वेदांत सोसाइटी ऑफ न्यूयॉर्क की स्थापना की और भारतीय वेदांत, योग तथा दर्शन का प्रचार किया। पश्चिमी जगत ने पहली बार जाना कि भारत केवल गरीबी और अंधविश्वास का देश नहीं है, बल्कि उसके पास हजारों वर्षों की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है।
भारत वापसी, रामकृष्ण मिशन की स्थापना, संदेश और अंतिम समय
1897 में भारत लौटने पर उनका भव्य स्वागत हुआ। उन्होंने युवाओं को शिक्षा और सेवा के लिए प्रेरित किया।स्वामी जी ने बेलूर मठ में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सेवा, शिक्षा और आध्यात्मिक उन्नति था। उन्होंने जातिगत भेदभाव और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज़ उठाई तथा विचार युवाओं के लिए ऊर्जा का स्रोत बने।
39 वर्ष की उम्र तक आते-आते विवेकानंद अनेक बीमारियों से घिर गए। अस्थमा, डायबिटीज़, माइग्रेन, किडनी और दिल की समस्याओं ने उन्हें कमजोर कर दिया। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि वे 40 वर्ष से अधिक नहीं जी पाएंगे। 4 जुलाई 1902 को बेलूर मठ में ध्यानावस्था में उन्होंने प्राण त्याग दिए।
स्वामी विवेकानंद का जीवन केवल धार्मिकता तक सीमित नहीं था। आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का संदेश, शिक्षा और विज्ञान के महत्व पर जोर, धार्मिक कट्टरता का विरोध, सेवा और मानवता को सर्वोच्च मानना मानवता के प्रति उनका सबसे बड़ा योगदान था।
उनकी शिकागो स्पीच आज भी विश्वभर में उद्धृत की जाती है जिसमें उन्होंने कहा था कि जैसे नदियां अलग-अलग रास्तों से समुद्र में मिलती हैं, वैसे ही सभी धर्म अंततः ईश्वर तक पहुंचते हैं।
आज के भारत के लिए स्वामी विवेकानंद की प्रासंगिकता
आज जब दुनिया आतंकवाद, कट्टरता और भौतिकता से जूझ रही है, तब विवेकानंद के विचार और भी प्रासंगिक हो उठते हैं। वे हमें सिखाते हैं कि सच्ची शक्ति भीतर से आती है और मानवता की सेवा ही धर्म का असली अर्थ है।
स्वामी विवेकानंद का जीवन एक संदेश है कि युवा यदि ठान लें तो असंभव भी संभव कर सकते हैं। गरीबी, कठिनाइयाँ या सीमित साधन भी किसी को महान बनने से रोक नहीं सकते। भारतभूमि का यह महान संन्यासी न केवल अपने समय में बल्कि आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा है। शिकागो की गूंज आज भी हमें याद दिलाती है कि भारत का आध्यात्मिक संदेश विश्व का मार्गदर्शन कर सकता है।