जब डायरेक्टर खुद बन गए हीरो और रच दिया इतिहास

मुहूर्त के समय गायब थे एक्टर उसके बाद जो हुआ वो भारतीय सिनेमा में इतिहास रच दिया

साल 1956 फिल्म के मुहूर्त शॉट की सभी तैयारियां पूरी हो चुकी थी, फ्लोर मैनेजर से लेकर डायरेक्टर तक अपनी पोजीशन में थे बस हीरो का इंतजार था कि अब आया कि तब आया कई विशिष्ट मेहमान जो इस खास मौके पर आमंत्रित थे वे अपनी शुभकामनाएं देकर जा चुके थे। फिल्म के डायरेक्टर गुरुदत्त को आशंका सताने लगी कि हीरो शायद नहीं आएगा,अगर कोई
मामूली एक्टर होता तो उसे फोन कर डांटते भी लेकिन फिल्म का हीरो उस दौर का सुपरस्टार था और आने वाले वक्त का मेगा स्टार भी था।वो नाम था “दिलीप कुमार” जो अबतक कुछ बेहतरीन फिल्मों में अपनी अदाकारी का लोहा मनवा चुके थे। आगे नया दौर,पैगाम,मुगले आज़म और गंगा जमुना जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्में उनकी झोली में गिरने वाली थी।
1956 तक ही वह बेस्ट एक्टिंग के तीन फिल्म फेयर अवार्ड जीत चुके थे और इससे भी ज्यादा अवार्ड उनका इंतजार कर रहे थे, ऐसे में गुरुदत्त ने बड़ी मुश्किल से उन्हें अपनी फिल्म प्यासा के लिए बड़ी मुश्किल से मनाया था। गुरुदत्त और दिलीप साहब के बीच इस फिल्म को लेकर काफी मोलभाव हुई थी,दिलीप कुमार को पहले तो कहानी पसंद आई और उन्होंने हां भी कर दी लेकिन बाद में नानुकुर करने लगे।
कहते हैं उस दौर में दिलीप साहब ने गुरुदत्त से इस फिल्म में एक्टिंग के लिए ₹1.5 लाख की फीस मांगी थी जो बहुत बड़ी रकम थी। उन्होंने रकम घटाने की मांग की तो दिलीप साहब ने कहा कि तुम रकम-वकम छोड़ो ऐज़ अ डायरेक्टर यह फिल्म मेरे लिए बनाओ और मुझे दे दो मैं डिस्ट्रिब्यूट भी कर दूंगा।गुरुदत्त को यह बात नागवार गुजरी तब तक वह भी ठीक-ठाक नाम कमा चुके थे, 1951 से अब तक बाजी,चालबाज,आर-पार,मिस्टर एंड मिसेज और सैलाब जैसी फिल्में डायरेक्ट कर चुके थे और
कुछ फिल्में प्रोड्यूस भी की थी। वो “प्यासा” को बड़ी मेहनत और शिद्दत से बना रहे थे तथा इस फिल्म के स्क्रिप्ट राइटर, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर सब कुछ वही थे।ऐसे में उन्हें दिलीप साहब की बात अखर गई उन्होंने दो टूक कहा कि मैं आपसे फिल्म का सौदा करने नहीं बल्कि आपको साइन करने आया हूं। खैर दिलीप साहब तय रेट पर काम करने को राजी हो गए संभावित डेट्स भी ले ली गई और मुहूर्त का दिन भी तय हो गया लेकिन अब जब पहले ही दिन यानी मुहूर्त शॉट के लिए हीरो नदारद था तो प्रोड्यूसर डायरेक्टर गुरुदत्त साहब की क्या हालत हुई होगी।
घंटों बीत जाने के बाद उन्हें पता चला कि दिलीप साहब घर पर नहीं है और यहीं पास में बी आर चोपड़ा के स्टूडियो में उनकी फिल्म नया दौर की शूटिंग में लगे हैं।गुरुदत्त ने उन्हें मैसेज भिजवाया कि आ जाए बस मुहूर्त शॉट देकर चले जाइएगा, दिलीप कुमार ने जवाब भिजवाया कि मैं बस 10 मिनट में आता हूं और इधर 10 मिनट का इंतजार लंबा होता गया।आखिरकार गुरुदत्त के सब्र का बांध टूट गया उन्होंने उसी मौके पर सबके सामने खुद को फिल्म का लीड हीरो घोषित कर दिया और कहा कि मैं ही अब इस फिल्म में एक्टिंग करूंगा। उसके बाद ना तो उन्होंने दिलीप कुमार से कोई बात की और ना ही दिलीप साहब ने कोई पूछताछ की मतलब साफ था कि दोनों के बीच डील या तो कच्ची रह गई थी या किसी ना किसी बात पर अटकी थी।

फिल्म की दास्तान जिसकी किस्मत में भारत की ऑल टाइम ग्रेट फिल्मों में शामिल होना लिखा था

इस फिल्म ने दुनिया भर में प्रशंसा बटोरी और गुरुदत्त को नाम और शोहरत की उस बुलंदी पर पहुंचा दिया जहां दिलीप कुमार तो क्या उस दौर के बड़े-बड़े सितारों और फिल्मकारों को उनसे पीछे छूटने लगे। इस फिल्म ने दिलीप कुमार की उस टॉप फिल्म के भी पसीने छुड़ा दिए जिसके चक्कर में वह मुहूर्त शॉट के लिए चंद मिनट भी नहीं निकाल पाए थे ।
प्यासा भारतीय सिनेमा की एक कालजई कलात्मक और सबसे सराही गई फिल्म है ।
फिल्म का हीरो विजय एक संवेदनशील शायर है जो रोजमर्रा के भागदौड़ और सच्चे प्यार के बीच संघर्ष करता है। उसकी शायरी दुनिया की सच्चाई और आम आदमी का दर्द बयां करती है लेकिन तब उसे कोई भाव नहीं देता उसकी कॉलेज के दिनों की प्रेमिका मीना यानी माला सिन्हा अब एक बड़े और अमीर प्रकाशक घोष की बीवी बन चुकी है। घोष विजय को नीचा दिखाने के लिए नौकरी पर रख लेता है और बाद में निकाल भी देता है उधर उसकी शायरी की कद्रदान एक तवायफ गुलाबों यानी वहीदा रहमान उसे दिलोजान से चाहने लगती है। दुनिया से निराश विजय एक खुदकुशी वाले हादसे से बच निकलता है लेकिन दुनिया उसे अब मरा हुआ मान लेती है।इधर अमीर प्रकाशक घोष उसकी शायरी को छाप कर खूब पैसे कमाता है और विजय रातोंरात मशहूर हो जाता है।यहां विडंबना यह भी है कि दुनिया जीवित शायर को तो नहीं जानती लेकिन उसकी मौत के बाद उसकी कला को तवज्जो देती है लेकिन विजय तो जिंदा था। वह चीख-चीख कर कहता है कि मैं ही वह शायर हूं तो कोई मानने को तैयार नहीं होता। असल में पता सबको है पर पैसे के लालच में सब ऐसी डीलों में फंसे हैं कि यारी दोस्ती तो क्या सगे भाई भी पहचानने से इनकार कर देते हैं लेकिन बाद में उसका पलड़ा भारी देख फिर से पलट भी जाते हैं।अब विजय को इस दुनिया से इतनी नफरत हो जाती है कि वो ये दुनिया यह समाज छोड़ देना चाहता है और छोड़ता भी है।

कईयों के कहने पर गुरु दत्त ने एंडिंग में थोड़ा बदलाव किया

इस फिल्म को देखने के बाद ज्यादातर डिस्ट्रीब्यूटर्स ने इसे खरीदने से मना कर दिया कि इतनी ट्रेजडी हिंदी सिनेमा में नहीं चलेगी फिल्म फ्लॉप हो जाएगी ।अब हीरो विजय उस तवायफ को साथ लेकर कहीं दूर चला जाता है जो उसे दिलों जान से चाहती है।19 फरवरी 1957 को जब यह फिल्म रिलीज होती है तब तो इसे दर्शक हाथों -हाथ नहीं लेते लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे इसके म्यूजिक का नशा लोगों पर चढ़ता है तो फिल्म हाउसफुल होने लगती है। यह उस दौर की पहली फिल्म थी जो कलात्मक तो थी ही व्यवसायिक रूप से भी सुपरहिट हुई थी।

फिल्म की सफलता में गीत– संगीत का योगदान बड़ा था

इस सफलता में इसकी कहानी और अनूठे डायरेक्शन का कमाल तो था ही ,लेकिन एसडी बर्मन के संगीत और साहिर लुधियानवी के गीतों का भी खास रोल था। एक से बढ़कर एक लाजवाब गाने और यह क्लाइमेक्स सॉन्ग तो साहिर को भी रिवोल्यूशनरी शायर का खिताब दिला दिया। मोहम्मद रफी ने इन गीतों को जो आवाज़ दी उसके भी क्या कहने थे। यह कमाल रफी ही कर सकते थे कि एक तरफ रोमांटिक गाने तो दूसरी तरफ कॉमेडी गाने “सर जो तेरा चकराए ये दिल डूबा जाए” इस एक गाने ने जॉनी वॉकर को भी कॉमेडी की नई बुलंदी पर पहुंचा दिया था।
फीमेल वॉइस गीता दत्त की थी जो गुरुदत्त की पत्नी भी थी। माला सिन्हा और वहीदा रहमान का अलग ही चार्म था ,पहले इन दोनों की जगह उस दौर की सबसे बड़ी हीरोइनों नरगिस और मधुबाला को लेने का फैसला किया गया था लेकिन कुछ मतभेदों के बाद गुरुदत्त ने माला सिन्हा और वहीदा रहमान पर ही दांव लगाया और दोनों ने क्या शानदार अदाकारी की थी। खैर प्यासा 1957 की सबसे कमाऊ फिल्मों में शामिल थी ही लेकिन जैसे-जैसे इसकी पॉपुलेरिटी साल दर साल देश विदेश में फैलने लगी और तमाम फिल्म समारोह में इस पर पुरस्कारों की भरमार होने लगी।


दिलीप साहब ने भी वर्षों बाद अपना पक्ष रखा था

दिलीप कुमार को इतनी बड़ी सुपरहिट फिल्म गंवाने की कसक तो रही ही होगी। लेकिन जब उनके फिल्म छोड़ने की ये कहानी फैलने लगी तो बाद में उन्होंने मीडिया में सफाई दी कि मैंने ये फिल्म साइन ही नहीं की थी। उन्होंने कई इंटरव्यूज में कहा कि असल में एक ट्रैजिक रोल था जो बहुत हद तक देवदास के मेरे किरदार से मेल खाता था ऐसे में मैं इसे रिपीट नहीं करना चाहता था।

सच्चाई जो भी हो आखिरी समय में लिए गए फैसले ने गुरुदत्त को एक क्लासिक डायरेक्टर से रातोंरात एक सुपरहिट एक्टर भी बना दिया था!

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