“चलते-चलते, चलते चलते
यूंही कोई मिल गया था, यूंही कोई मिल गया था”
हिंदी सिनेमा की दुनिया में यह पंक्ति मशहूर अदाकारा और शायरा मीना कुमारी पर बिल्कुल सटीक बैठती है, जिन्हें बॉलीवुड की ट्रेजडी क्वीन कहा गया!
ट्रेडजी क्वीन का खिताब पाने वाली यह हसीन अदाकारा न सिर्फ़ पर्दे पर अपनी अदाकारी से दर्शकों का दिल जीत लेती थी, बल्कि अपनी निजी जिंदगी के दर्द और तन्हाई से भी जूझती रही।
उन्होंने बैजू बावरा, परिणिता, साहिब बीबी और गुलाम और पाकीज़ा जैसी फिल्मों से हिंदी सिनेमा को अमर कृतियां दीं लेकिन सिनेमा की चकाचौंध के पीछे उनकी जिंदगी अंधेरों से भरी रही। परिवार, पति, प्रेमी और दोस्त सब उनके साथ सिर्फ़ अपने-अपने फायदे के लिए रहे, और यहाँ तक कि मृत्यु के समय भी हालात इतने बुरे हुए कि इस क्वीन को एक अदद कफ़न तक आसानी से नसीब नहीं हो पाया।
अपने जीवन का दर्द उन्होंने अपनी शायरी और डायरी में उकेरा जो उनकी तन्हाइयों से निकले शेर और ग़ज़लें आज भी उनके दिल की पुकार बनकर गूंजते हैं।

मीना कुमारी की जिंदगी बचपन से ही संघर्ष भरी रही
मीना कुमारी का जन्म 1 अगस्त 1933 को मुंबई में हुआ था और असली नाम महजबीं बानो था। परिवार बेहद ग़रीब था और पिता अली बक्श संगीतकार और रंगमंच के कलाकार थे तथा मां प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो), भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी।
महजबीं पहली बार 1939 में फिल्म “लैदरफेस” में बतौर बाल कलाकार उतरीं ताकि परिवार की मदद हो सके। उनका बचपन किताबों और स्कूल में नहीं, बल्कि कैमरों और सेट्स के बीच बीता। पढ़ाई अधूरी रह गई, लेकिन अदाकारी और शायरी की कला उनके भीतर गहराई तक उतर चुकी थी। 1946 में आई फिल्म बच्चों का खेल से बेबी मीना 13 वर्ष की आयु में मीना कुमारी बनीं। मार्च 1947 में लम्बे समय तक बीमार रहने के कारण उनकी माँ की मृत्यु हो गई। उनकी नन्हीं उम्र की मेहनत ने परिवार को सहारा दिया, लेकिन उनकी अपनी जिंदगी हमेशा तन्हा और मुश्किल भरी रही।
फिल्मों में अदाकारा के रूप में पहचान और शिखर पर पहुंची मीना
1946 में फिल्म “बच्चन” और “पिया घर आजा” में उन्हें हीरोइन का रोल मिला। धीरे-धीरे उनकी मासूम अदाकारी और गहरी आँखों ने दर्शकों का दिल जीतना शुरू कर दिया। 1952 में आई “बैजू बावरा” उनके करियर का टर्निंग प्वाइंट बनी और इस फिल्म में भारत भूषण के साथ जोड़ी एवं उनके भावनात्मक अभिनय ने उन्हें स्टार बना दिया। इसके बाद उन्होंने “परिणीता” (1953), “दुलारी” (1949), “आरती” (1962) और “दिल अपना और प्रीत पराई” (1960) जैसी फिल्मों से ज़बरदस्त लोकप्रियता मिली।
1960 के दशक में मीना शिखर पर थीं ,यह दौर मीना कुमारी के करियर का स्वर्णकाल कहा जाता है। “साहिब बीबी और गुलाम” (1962) में उनकी “छोटी बहू” की भूमिका ने उन्हें अमर बना दिया और यह किरदार उनके वास्तविक जीवन के दर्द से मेल खाता था। इसके अलावा “मैं चुप रहूंगी” (1962), “काजल” (1965), “फूल और पत्थर” (1966), और “मेरे अपने” (1971) उनकी उल्लेखनीय फिल्में रहीं।
अंतिम दौर में मीना कुमारी का निजी जीवन बेहद कठिन रहा। शराब की लत, स्वास्थ्य समस्याएँ और रिश्तों की जटिलताओं ने उन्हें तोड़ दिया लेकिन इसी बीच उन्होंने “पाकीज़ा” (1972) जैसी कालजयी फिल्म की। फिल्म की शूटिंग करीब 14 साल चली और यह मीना कुमारी की आखिरी फिल्म थी, जिसने उन्हें अमर कर दिया।
मीना कुमारी को चार बार फिल्मफेयर अवॉर्ड फॉर बेस्ट एक्ट्रेस मिला।
शायरी थी ट्रेडजी क्वीन के दिल का आईना
मीना कुमारी सिर्फ़ अभिनेत्री नहीं, एक संवेदनशील शायरा भी थीं जिनके लिखे अल्फाज़ किसी की भी रूह को छू सकते हैं। मीना कुमारी की ज़िंदगी जितनी चमकदार परदे पर नज़र आई, असलियत में उतनी ही तन्हा और दर्द से भरी रही थी। लोग उन्हें पर्दे पर “ट्रेजेडी क्वीन” कहते रहे, लेकिन उनकी शायरी ने बता दिया कि ये सिर्फ़ एक नाम नहीं था, बल्कि उनकी हक़ीक़त थी। उनके शब्दों में उनकी रूह बोलती थी और वो रूह जो मोहब्बत के लिए तड़पी, भरोसे में टूटी और तन्हाई में घुल गई। यही वजह है कि आज भी उनकी शायरी पढ़कर लगता है जैसे हम सीधे उनके दिल की गहराइयों में झाँक रहे हों। उनकी शायरी में तन्हाई, दर्द और मोहब्बत की खामोशी झलकती है।
“चाँद तन्हा है, आसमां तन्हा,
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा,
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा।”
ये अल्फाज़ उनके जीवन की सच्चाई थे और उन्होंने जो कुछ जिया, वही शेरों में ढलकर अमर हो गया।

कमाल अमरोही से शादी किया लेकिन वो मोहब्बत कम, कैद ज्यादा थी
फिल्मी सफ़र में एक मोड़ आया जब उनकी मुलाकात निर्देशक कमाल अमरोही से हुई। 1952 में दोनों ने चुपके-चुपके शादी कर ली जबकि कमाल उनसे 16 साल बड़े थे, पहले से शादीशुदा और तीन बच्चों के पिता भी थे। मीना ने सब कुछ भूलकर मोहब्बत में उन्हें अपना लिया लेकिन समय के साथ इस रिश्ते में प्यार से ज़्यादा पाबंदियां आ गईं। कमाल अमरोही ने उन पर शाम 6 बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकलना, किसी की कार में सफ़र न करना, मेकअप रूम में कोई पुरुष न आ सके जैसे कड़े नियम थोप दिए।
मीना कुमारी, जो पर्दे पर आज़ाद और आत्मविश्वासी दिखाई देती थीं, निजी जीवन में कैद-सी महसूस करने लगीं। धीरे-धीरे तनाव और खटास इतनी बढ़ गई कि रिश्ता टूटने की कगार पर पहुंच गया। कहा जाता है कि गुस्से में कमाल अमरोही ने उन्हें तीन तलाक तक दे डाला और बाद में पछतावे में वे उन्हें वापस लाना चाहते थे। लेकिन मीना का मन बुरी तरह टूट चुका था और उनके लिए मोहब्बत अब बोझ बन गई थी।
शादी टूटने के बाद धर्मेंद्र से बढ़ी नज़दीकियाँ
शादी टूटने के बाद मीना कुमारी की जिंदगी में आए अभिनेता धर्मेंद्र, जो उस वक्त करियर की शुरुआत कर रहे थे और बेहद संघर्ष में थे। मीना कुमारी पहले से सुपरस्टार थीं और उन्होंने धर्मेंद्र का हाथ थामा, उन्हें फिल्मों में सिफारिश की, एक्टिंग सिखाई और करियर बनाने में मदद की। कहा यह भी जाता है कि धर्मेंद्र के करियर को ऊँचाई तक पहुंचाने में मीना कुमारी का बहुत बड़ा योगदान था। लेकिन जैसे ही धर्मेंद्र कामयाबी की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, मीना कुमारी उनसे दूर होती चली गईं।
यह दूरी उनके लिए एक और गहरा धोखा साबित हुई। अफ़वाहें यहाँ तक कहती हैं कि एक बार धर्मेंद्र ने उन्हें थप्पड़ भी मारा था, इस अपमान ने उनके दिल को और तोड़ डाला।

दर्द और शराब बन गया था मीना की जिंदगी का सहारा
प्यार और रिश्तों के धोखे, परिवार की बेरुखी और कैद जैसे हालातों ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया। उन्होंने अपना दर्द भुलाने के लिए शराब का सहारा लिया लेकिन शराब ने उनकी बीमारी को और बढ़ा दिया। उनका लिवर खराब हो गया और वह धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ने लगीं, फिर भी उनकी शायरी जारी रही।
“तेरे कदमों की आहट को यह दिल ढूंढता हर दम,
हर एक आवाज़ पर एक थरथराहट होती है।”
ये शेर उनकी टूटती ज़िंदगी का आईना हैं जो उनकी बेबसी और तन्हाई की झलक देता है। लोग उनकी गिरती सेहत, उनकी टूटी रूह और मौत की ओर बढ़ते क़दमों को देख-देख कर भी अब “आदी” हो चुके हों यानी उनका दर्द इतना पुराना हो गया था कि अब किसी को हैरानी नहीं होती थी।
आख़िरी सफ़र में गुलज़ार की परछाईं और तन्हा चाँद से अमर हुई मीना की शायरी
मीना कुमारी की ज़िंदगी के आख़िरी पड़ाव पर गुलज़ार का साथ बहुत अहम रहा था। जब मीना कुमारी बीमारी से जूझ रही थीं, तब उनके आस-पास बहुत कम लोग रह गए थे। उसी दौर में गुलज़ार उनके बेहद क़रीबी बने और उन्होंने न सिर्फ़ उनका दर्द सुना, बल्कि उनकी डायरियों और अधूरी नज़्मों को भी सहेजा। मीना कुमारी नहीं चाहती थीं कि उनकी शायरी छपे लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनके करीबी गुलज़ार ने उनकी लिखी डायरी और नज़्मों को “ मीना कुमारी: नज़्में ” नाम से प्रकाशित किया। इस संग्रह ने साबित किया कि मीना सिर्फ़ एक अदाकारा ही नहीं, बल्कि एक बड़ी शायरा भी थीं। उनकी लिखी हर पंक्ति उनके टूटे हुए दिल से निकली थी।
31 मार्च 1972 को, महज़ 38 साल की उम्र में मीना कुमारी लिवर सिरोसिस से लड़ते-लड़ते वह हार गईं और इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी आखिरी फिल्म पाकीज़ा उनकी मौत के कुछ हफ़्तों बाद सुपरहिट साबित हुई। दर्शकों ने स्क्रीन पर उन्हें देखा, पर वास्तविकता में वे दुनिया छोड़ चुकी थीं।
उनकी मृत्यु पर एक शेर बिल्कुल सटीक बैठता है :–
“अयादत होती जाती है, इबादत होती जाती है,
मेरे मरने की देखो सबको आदत होती जाती है।”
मीना कुमारी की अदाकारी, उनकी शायरी और उनका दर्द सब मिलकर उन्हें अमर बना देते हैं। आज भी जब पाकीज़ा के संवाद गूंजते हैं या उनकी ग़ज़लें पढ़ी जाती हैं, तो लगता है जैसे वह हमारे आसपास मौजूद हों। जीवन में शोहरत और कामयाबी सब कुछ नहीं होती, कभी-कभी चमकदार रोशनी के पीछे सबसे गहरी तन्हाई छिपी होती है।
एक बेहतरीन अदाकारा, एक रूहानी शख्सियत और एक नायाब शायरा मीना कुमारी की जिंदगी दर्द से भरी रही, लेकिन उन्होंने उस दर्द को कला में ढालकर अमर बना दिया।
वह चली गईं, लेकिन सिल्वर स्क्रीन और शायरी की दुनिया पर उनका नाम हमेशा सुनहरे अक्षरों में चमकता रहेगा !