किशोर कुमार और अमिताभ बच्चन की जादुई जुगलबंदी की अनसुनी दास्तान जो हिंदी फिल्म जगत में इतिहास बन गई !

भारतीय सिनेमा की दुनिया में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं, जो केवल पेशेवर न होकर भावनात्मक भी होते हैं। ऐसा ही रिश्ता रहा हिंदी सिनेमा के दो महानतम नाम अमिताभ बच्चन और किशोर कुमार के बीच था। एक महानायक, जिसकी आवाज़ सिनेमाघरों से लेकर गली-मोहल्लों तक गूंजती थी और दूसरा एक बहुआयामी प्रतिभा, जिसकी गायकी ने हर भाव, हर किरदार को जीवंत कर दिया। हालाँकि दोनों की जोड़ी ने अनगिनत सुपरहिट गाने दिए, लेकिन इस रिश्ते में संगीत था, सम्मान था, नाराज़गी थी और सुलह भी थी।

इन दोनों दिग्गजों की जुगलबंदी में हुई नए युग की शुरुआत

किशोर कुमार, जिनका फिल्मी करियर 1940 के दशक में शुरू हुआ था, तब तक एक स्थापित गायक-अभिनेता बन चुके थे जबकि 1970 के दशक में अमिताभ बच्चन एक नवोदित अभिनेता के रूप में इंडस्ट्री में उभर रहे थे।
हालांकि किशोर कुमार पहले से ही राजेश खन्ना के लिए एक सुपरहिट वॉइस बन चुके थे, लेकिन जब उन्होंने अमिताभ के लिए गाना शुरू किया तो यह एक नए युग की शुरुआत थी। अमिताभ की गम्भीर और भारी आवाज़ को किशोर दा की ताकतवर टोन ने जबरदस्त तरीके से सपोर्ट किया।

पहली जुगलबंदी “अभिमान” से शुरू हुई थी।

1973 में रिलीज़ हुई फिल्म “अभिमान” इस रिश्ते का पहला अहम मोड़ थी। इस फिल्म में अमिताभ ने एक गायक की भूमिका निभाई और किशोर कुमार ने उनके लिए केवल दो गाने गाए।
“मीत ना मिला रे मन का मीत”
“तेरे मेरे मिलन की ये रैना…”
लेकिन उसके बाद किशोर दा ने अचानक फिल्म से किनारा कर लिया और बाकी गाने गाने से इनकार कर दिया। यह फैसला सबको चौंकाने वाला लगा क्योंकि फिल्म के संगीतकार सचिन देव बर्मन को किशोर अपने पिता समान मानते थे। बाद में पता चला कि फिल्म की कहानी एक ऐसे गायक की है जिसे अपनी पत्नी की बढ़ती शोहरत से ईर्ष्या होने लगती है। उसी समय किशोर कुमार का अपनी पहली पत्नी रुमा गुहा ठाकुरता से तलाक हो रहा था। उन्हें लगा कि यह कहानी कहीं न कहीं उनकी निजी ज़िंदगी से मिलती-जुलती है और इस निजी पीड़ा ने उन्हें फिल्म से दूर कर दिया। बाद में निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने स्वीकार किया कि फिल्म की प्रेरणा सच में किशोर और रुमा के रिश्ते से ही ली गई थी।

इस दूरी के बाद भी आवाज़ वही थी जो अमिताभ की लगातार सफलता का कारण बना।

इस फैसले के बावजूद किशोर कुमार और अमिताभ बच्चन का सहयोग रुकने वाला नहीं था। अमिताभ की लगातार हिट होती फिल्मों के पीछे एक बड़ा कारण उनका स्क्रीन प्रजेंस और उस पर सटीक बैठने वाली आवाज़ किशोर कुमार की थी।
“अमर अकबर एंथनी” से लेकर “डॉन”, “खून पसीना”, “कसमें वादे”, “मुक़द्दर का सिकंदर”, और “लावारिस” तक में किशोर दा की आवाज़ में गाए गीतों ने अमिताभ की इमेज को और बुलंदी दी। फिल्म विशेषज्ञ मानते हैं कि किशोर कुमार ने अमिताभ के लिए अपनी गायकी में बदलाव किया। वे एक भारी, गंभीर लेकिन भावपूर्ण अंदाज़ में गाने लगे जो अमिताभ की स्क्रीन पर मौजूदगी से मेल खाता था।

“ममता की छांव में” फिल्म के वक्त दोनों के रिश्ते में आई थी दरार।

1980 के दशक की शुरुआत में किशोर कुमार ने एक फिल्म “ममता की छांव में” बनाई। वे इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक, संगीतकार और गायक सभी थे और उन्होंने इस फिल्म में एक गेस्ट रोल के लिए अमिताभ बच्चन से संपर्क किया।
लेकिन अमिताभ की टीम ने सुझाव दिया कि इस फिल्म का स्तर उनकी छवि को नुकसान पहुंचा सकता है और अमिताभ ने समय की कमी का हवाला देते हुए प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। इस बात से किशोर कुमार बेहद नाराज़ हो गए और उन्होंने अमिताभ की फिल्मों में गाना गाने से इनकार कर दिया।

जुगलबंदी में दरार के बाद विकल्पों की तलाश और संगीत का खालीपन।

इस बीच, 1980 में मोहम्मद रफी का निधन हो गया और किशोर कुमार पहले ही अमिताभ से खफा थे। ऐसे में निर्माता-निर्देशक असमंजस में पड़ गए कि अमिताभ के लिए प्लेबैक कौन करेगा? "कुली" (1983) में अमिताभ की आवाज़ शब्बीर कुमार बने लेकिन वह प्रभाव किशोर दा जैसा नहीं बन पाया।
माफी के बाद मेल-मिलाप और हुई नई शुरुआत।
1983 में जब किशोर कुमार अपने बेटे अमित कुमार का जन्मदिन मना रहे थे, तब एक अनपेक्षित मेहमान उनके घर पहुंचा जोअमिताभ बच्चन थे। कहा जाता है कि उन्होंने किशोर दा से एकांत में बात की और माफी मांगी तथा फिर से साथ काम करने की इच्छा जताई। इसके बाद ही "शराबी" (1984) आई जिसमें 7 में से 6 गाने किशोर कुमार की आवाज़ में थे।
"दे दे प्यार दे…", "लोग कहते हैं मैं शराबी हूँ…" जैसे गानों ने फिल्म को ब्लॉकबस्टर बना दिया था।

राजनीति का असर और फिल्म “तूफान” से हुई किशोर दा के सफ़र की अंतिम विदाई।

1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई और तब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने अपने दोस्त अमिताभ बच्चन को राजनीति में आने के लिए कहा और इसके चलते अमिताभ ने फिल्मों से दूरी बना ली। हालांकि कई फिल्में जो पहले से बन रही थीं वे बाद में रिलीज़ हुईं जिनमें कुछ में किशोर कुमार थे और कुछ में शब्बीर कुमार या मोहम्मद अजीज जैसे गायक थे। “गिरफ्तार” (1985) में फिर किशोर कुमार की वापसी हुई, और “धूप में निकला न करो रूप की रानी…” जैसे गाने फिर से सुपरहिट हो गए।
1987 में जब अमिताभ बच्चन राजनीति से वापसी कर रहे थे, तभी किशोर कुमार का 13 अक्टूबर 1987 को निधन हो गया। किशोर दा ने अमिताभ के लिए जो आखिरी फिल्मी गाना गाया, वह फिल्म “तूफान” (1989) में आया जो उनकी मृत्यु के दो साल बाद रिलीज़ हुई। यह फिल्म, और उसमें गाया गया उनका गाना, दोनों ही एक युग के अंत की तरह थे।

किशोर दा के गायकी की सफ़र के कुछ रोचक आंकड़े।
किशोर कुमार ने राजेश खन्ना के लिए 245 गाने गाए,वहीं अमिताभ बच्चन के लिए केवल 131 गाने गाए। इसके बावजूद अमिताभ के साथ किशोर के गाए लगभग सभी गाने हिट या सुपरहिट रहे। किशोर दा ने अमिताभ की “एंग्री यंग मैन” छवि को ध्यान में रखते हुए अपने गायन शैली और अंदाज को बदला था।

साझेदारी का जादू जो फिर कभी दोहराया नहीं जा सका।

अमिताभ बच्चन और किशोर कुमार, दोनों अलग-अलग क्षेत्रों के महारथी थे लेकिन जब साथ आए तो हिंदी फिल्म संगीत में एक ऐसा युग बना जिसकी मिसाल आज तक दी जाती है। उनकी साझेदारी में केवल गाने नहीं थे, उसमें भाव, आत्मा और अभिनय का समागम था। कभी साज़िशें रहीं, कभी गलतफहमियाँ पर अंत में दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते रहे। आज भी जब हम “My Name Is Anthony Gonsalves”, “ओ साथी रे”, या “दे दे प्यार दे” जैसे गाने सुनते हैं, तो हम किशोर की आवाज़ में अमिताभ को महसूस करते हैं।
यही वो जादू है जब एक गायक और अभिनेता का ऐसा जुगलबंदी जो इतिहास बन गया।

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