“दिशोम गुरु” शिबू सोरेन के संघर्ष, विवाद और विरासत की कहानी !

13 मई 2004 का दिन भारतीय राजनीति के लिए यादगार था जब 14वीं लोकसभा चुनाव के नतीजे आए और “इंडिया शाइनिंग” के नारे के साथ चुनावी मैदान में उतरी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस ने 15 दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई, लेकिन सत्ता संभालते ही गठबंधन के भीतर की मुश्किलें सामने आने लगीं। 22 मई 2004 को मशहूर अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, मगर साफ–सुथरे छवि वाले डॉ साहब की सरकार के दो महीने भी पूरे नहीं हुए थे कि एक केंद्रीय मंत्री के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी हो गया।
यह कोई मामूली मामला नहीं था बल्कि यह वारंट 11 लोगों के नरसंहार के आरोप में जारी हुआ था। पुलिस दिल्ली स्थित मंत्री के घर पहुंची तो पता चला कि वे घर पर नहीं हैं और यह राष्ट्रीय शर्म की बात बन गई कि भारत सरकार का एक मंत्री फरार हो गया है। सात दिन बाद उनके इस्तीफे की खबर आई और फिर 30 जुलाई को मीडिया के सामने आकर उन्होंने आत्मसमर्पण का ऐलान किया। बाद में वे जमानत पर छूटे और दोबारा केंद्रीय मंत्री भी बने।यही नहीं, आगे चलकर ये एक नए राज्य के मुख्यमंत्री भी बने, लेकिन राजनीति में उनकी कहानी इससे कहीं अधिक गहरी और लंबी है।
जिस शख्स की यह कहानी है, वे हैं अलग झारखंड राज्य के लिए संघर्ष करने वाले  ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन।

आइए जानते हैं दिशाेम गुरु जी का प्रारंभिक जीवन और संघर्ष की शुरुआत के बारे में।

शिबू सोरेन का जन्म 11जनवरी 1944 को झारखंड के रामगढ़ जिले के नीमरा गाँव (तत्कालीन बिहार) में हुआ। वे संथाल समुदाय से ताल्लुक रखते थे और उनके पिता शोभन सोरेन एक शिक्षक थे और इलाके में महाजनी प्रथा के खिलाफ खुलकर बोलते थे। उस दौर में सूदखोर गरीब आदिवासियों को कर्ज देते और बदले में उनकी जमीन हड़प लेते थे। शोभन सोरेन की बगावती आवाज महाजनों के लिए खतरा थी। एक बार उन्होंने एक महाजन को सबके सामने पीट भी दिया था। यह टकराव महाजनों को रास नहीं आया और एक दिन, जब शोभन अपने बेटे के लिए राशन लेकर स्कूल हॉस्टल जा रहे थे, रास्ते में उनकी हत्या कर दी गई। उस समय शिबू स्कूल में पढ़ रहे थे, तभी पिता की हत्या ने उनकी जिंदगी की दिशा बदल दी और यहीं से उनकी लड़ाई महाजनों और अन्याय के खिलाफ शुरू हुई।

धनकट आंदोलन और ‘दिशोम गुरु’ का जन्म

पिता के जाने के बाद शिबू सोरेन ने पढ़ाई छोड़ दी और सीधे संघर्ष के मैदान में उतर आए। उन्होंने ‘धनकट आंदोलन’ की अगुवाई की और इस आंदोलन में आदिवासी महिलाएं हंसिया लेकर महाजनों के खेतों से फसल काट ले जातीं और पुरुष तीर-कमान लेकर उनकी रक्षा करते। यह सिर्फ जमीन का सवाल नहीं था, यह आदिवासी आत्मसम्मान की लड़ाई बन चुकी थी।
धीरे-धीरे यह आंदोलन फैलता गया और आदिवासियों को उनके हक के लिए लड़ने की प्रेरणा देने लगा। इस आंदोलन की जन–जागरुकता की वजह से बिहार सरकार महाजनी प्रथा पर कानून बनाने के लिए बाध्य हुई। इसी आंदोलन ने शिबू सोरेन को आदिवासी राजनीति का नेता बना दिया और उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की उपाधि मिली। ‘दिशोम’ का मतलब आदिवासी संस्कृति में ‘जंगल’ या ‘जमीन’ होता है।

झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना और पृथक राज्य निर्माण।

4 फरवरी 1972 को शिबू सोरेन, विनोद बिहारी महतो और ए.के. राय ने मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना किये। उनका उद्देश्य अलग झारखंड राज्य का गठन और आदिवासियों के हक की लड़ाई को राजनीतिक रूप देना था।
पहले भी झारखंड की मांग उठती रही थी, लेकिन JMM के गठन के बाद आदिवासी, मजदूर और अन्य पिछड़ी जातियों के बीच आंदोलन नई ऊर्जा के साथ और भी प्रभावशाली हो गई। अब यह सिर्फ राजनीतिक मांग नहीं थी, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का रूप ले चुका था। वर्ष 2000 में झारखंड राज्य का ग्रहण तक की लड़ाई में गुरुजी और इनकी पार्टी की भूमिका अहम रही।

दिशोम गुरु शिबू सोरेन जी का राजनीतिक सफर।

1977 में शिबू सोरेन ने पहली बार दुमका लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए। 1980 में उन्होंने फिर कोशिश की और जीत दर्ज की तथा  इसके बाद 1989, 1991, 1996, 2002 (उपचुनाव), 2004 और 2009 में वे दुमका से सांसद चुने गए। कुल मिलाकर वे आठ बार लोकसभा पहुंचे, जो उनकी लोकप्रियता का सबूत था।

मुख्यमंत्री के रूप में उनका सफर:
झारखंड राज्य बनने के बाद 2005 के विधानसभा चुनाव में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। राज्यपाल ने शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बना दिया, लेकिन वे बहुमत साबित नहीं कर पाए और 10 दिन में इस्तीफा देना पड़ा।
• 2008 में वे फिर मुख्यमंत्री बने, लेकिन विधायक न होने के कारण उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ना पड़ा, जहां वे हार गए और फिर इस्तीफा देना पड़ा।
• 2009 में तीसरी बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन गठबंधन की राजनीति के चलते कुछ ही महीनों में उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी। इस तरह वे तीन बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन कभी भी कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए।

शिबू सोरेन के राजनीतिक जीवन में विवाद हमेशा साथ रहे।

• रिश्वत कांड (1993): नरसिंह राव सरकार को बचाने के लिए JMM के सांसदों को रिश्वत दी गई। इस मामले में शिबू सोरेन पर भी आरोप लगे, लेकिन आखिरकार वे सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गए।
• चिरुदिह नरसंहार (1975): इसमें 11 लोगों की हत्या हुई थी। 2004 में इस मामले में गैर-जमानती वारंट जारी हुआ, जिसके बाद वे कुछ समय अंडरग्राउंड रहे। फिर सरेंडर किया और मंत्री पद छोड़ना पड़ा लेकिन 2008 में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।
इन मामलों ने उनका राजनीतिक सफर को प्रभावित किया लेकिन वे बिना रुके संघर्ष करते रहे।

स्वास्थ्य, राजनीति में बदलाव और अंतिम दिन

अप्रैल 2025 में शिबू सोरेन ने झारखंड मुक्ति मोर्चा की अध्यक्षता छोड़कर “संरक्षक” का पर ग्रहण किए और उनकी पार्टी का नेतृत्व हेमंत सोरेन ने संभाला।
उम्र बढ़ने के साथ-साथ शिबू सोरेन की सेहत बिगड़ने लगी। उन्हें मधुमेह, किडनी और हृदय संबंधी समस्याएँ थीं। जून 2025 में उन्हें दिल्ली के श्री गंगा राम अस्पताल में भर्ती कराया गया ,जहां वे वेंटिलेटर सपोर्ट पर थे।
4 अगस्त 2025 की सुबह 81 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। उनके बेटे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पिता के निधन की खबर देते हुए कहा कि “आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सभी को छोड़कर चले गए हैं… आज मैं शून्य हो गया हूँ।”

शिबू सोरेन गरीबी में जन्म लेकर, पिता की हत्या झेली, महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन किया, एक नए राज्य के गठन की लड़ाई लड़ी और केंद्र व राज्य सरकारों में अहम जिम्मेदारियां निभाईं। हालांकि सार्वजनिक विवादों ने उनकी छवि को धूमिल किया, लेकिन उनका संघर्ष और राजनीतिक प्रभाव झारखंड की राजनीति में अमिट रहेगा।
दिशोम गुरु अब नहीं रहे, लेकिन उनकी विरासत के रूप में झारखंड मुक्ति मोर्चा और "आदिवासी अधिकारों की आवाज़" आज भी ज़िंदा है।

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